अड़तालिसवीं छाया रसों के वैज्ञानिक भेद सभी रस आत्मरक्षण वा स्ववंशरक्षण से सम्बन्ध रखते हैं। हमारी सारी स्वाभाविक क्रियाएँ और सारे भाव व्यक्ति और जाति के हिताहित के चिचार से ही जागते है। काम भाव की सहज प्रवृत्ति प्रजनन ही है। इससे आत्मरक्षा ही केवल नही होती, वंश की भी रक्षा होती है और जाति की भी। हास्य रस शृङ्गार का सहायक है। हास्य आमोद-प्रमोद से पारस्परिक प्रीति का पोषण करता है। हास्य चिंता और मानसिक किल्विष को दूर कर चित्त को हल्का कर देता है। उसका प्रभाव स्वास्थ्य पर भी पड़ता है, जिससे आत्म-रक्षा होती है । मनुष्य सामाजिक प्राणी है। इससे वह एक के दुख से दुखी होता है। सहानुभूति का यह भाव ही करुण रस को उपजाता है। यह करुण अपनो इष्टहानि से हो केवल सम्बन्ध नहीं रखता। सहानुभूतिमूलक होने से इसका बहुत व्यापक क्षेत्र है। भरत के कथनानुसार रौद्र अथ-प्रधान है और वौर धर्म-प्रधान । इन दोनों का सम्बन्ध अात्म-रक्षा से है। ऐसे ही भयानक, वीभत्स और अद्भुत को भी समझना चाहिये । इच्छा के दो रूप हैं-राग और द्वष । इन्हें काम और क्रोध भी कह सकते है। राग के प्रति रूप का शृङ्गार से, सम्मान रूप का अद्भुत से और दया रूप का करुण से सम्बन्ध है। द्वष के भय-रूप का भयानक से, क्रोध-रूप का रौद्र से और जुगुप्सा-रूप का वीभत्स रस से सम्बन्ध है। हास्य में प्रीति और अपमान वा घृणा का तथा वीर में क्रोध, दया आदि का मिश्रण है। ऐसे हो भक्ति, शान्त, वत्सल आदि सम्मिश्रित रस हैं। ___ मानसिक स्थान के विचार से रसो के तीन विभाग होते हैं। (१) ज्ञानसंबद्ध (२) भावसम्बद्ध और ( ३) क्रियासम्बद्ध । ज्ञान से सम्बन्ध रखनेवालों की श्रेणी में शान्त, अद्भुत और हास्य रस आते हैं । ज्ञान बुद्धि-प्रधान होता है और इन रसों में बुद्धि की प्रधानता है। भावों से सम्बन्ध रखनेवाले शृङ्गार, करुण, वीभत्स और रौद्र ठहरते हैं। इनमें भावों की ही प्रधानता लक्षित होती है। क्रिया से सम्बन्ध रखनेवाले वीर और भयानक रस माने जाते है। इनमें क्रियात्मक प्रवृत्ति ही अधिक दीख पड़ती है । प्रधानता को लक्ष्य में रखकर हो ये भेद किये गये हैं । ये शुद्ध भेद नहीं कहे जा सकते। त्रिगुण-सत्व, रजस् तथा तमस-के आधार पर भी इनके मेद किये जाते हैं। रजोगुणी प्रकृति के शृङ्गार, करुण और हास्य रस है। इनका राग से विशेष सम्बन्ध है। झार का सहायक होने से हास्य की भी गपना इसी में होती है। IMA
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