पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/२५५

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१६८ काव्यदर्पण भी शृङ्गार की प्रधानता मानी है। शृङ्गार का अनुयायी होने से हास्य का दूसरा स्थान है; निरपेक्ष होने से हास्य के विपरीत करुण है। इससे उसका तीसरा स्थान है। करुण से उत्पन्न होने अर्थात् मूल में करुणा होने से रौद्र माना गया । वह अर्थ-प्रधान है । पाँचवा वीभत्स है । यह धर्म-प्रधान है और धर्म अर्थ का मूल है । वीर का कार्य भयातों को अभय-प्रदान ही है। इससे छठा भयानक है। भय के विभावों से निर्माण होने के कारण वीभत्स का सातवां स्थान है। आठवां स्थान अद्भुत का है। क्योंकि वीर के अन्त में अद्भुत होना ही चाहिए।' ___ भरत ने चार मुख्य रसों से चार गौण रसों को जो उत्पत्ति बतायी है उसका यह आशय नहीं की गौण रसों के मूल मुख्य रस है। उनका फलितार्थ यही इतना है कि उनके विभावों से ये रस उत्पन्न होते है, उनसे वे रस परिपुष्ट होते हैं । यही कहना ठीक है कि शृङ्गारमूलक हास्य होता है। यह भी निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता कि इनसे ये ही रस उत्पन्न हो सकते है, दूसरे नहीं। वीर, वत्सल आदि रसों के विभावों से भी हास्य उत्पन्न हो सकता है। शंड का कहना है कि तात्विक दृष्टि से देखने पर कोई एक भावना दूसरी भावना से स्वतंत्र नही । फिर भी व्यावहारिक दृष्टि से ऐसी कुछ भावनाएं हैं जो मूलभूत और स्वतंत्र कही जा सकती है । ऐसी भावना या भावनाओ के संघ ये है- (१) आनन्द (joy ), (२) विषाद ( sorrow ), (३) भय ( fear ), (४) क्रोध (anger ), ये चार मुख्य हैं और (५) गुप्ता ( disgust repugnance ) तथा (६) विस्मय ( surprise, curiosity, wonder ) ये दो गौण हैं। इनमें हमारी पाँच भावनाएँ तो मिल जाती हैं । बचे वीर, शृङ्गार और हास्य । हास्य को वे आनन्द में ले लेते हैं । कारण यह कि हास्य का क्षेत्र संकुचित है और आनन्द (joy) का क्षेत्र व्यापक है। उसमें सभी प्रकार के श्रानन्द अन्तभूत हो जाते हैं। क्रोध ( anger ) में रौद्र और वोर, दोनों को सम्मिलित कर लेते हैं। रति को वे मूल भावना मानते ही नहीं और न उसकी व्यापकता को स्वीकार करते हैं। इसके समाधान में कहा जाता है कि मनुष्य में कुछ भावना-संघों के अतिरिक्त एक इच्छा होती है। उसके योग से नाना भाँति की भावना प्रबल हो उठती हैं, जिनसे मन उनके अधीन हो जाता है । इसी इच्छा के छहों मूलभावनाएँ सहायक हो जाती हैं। ऐसी ही इच्छा रति है और रति वा प्रेम करनेवाला प्रेमी कहा जाता है । ऐसी विशिष्ट इच्छा को अधिकारी स्वभाव वा धर्म ( ruling sentiment ) कहते हैं। यह इच्छा अधिकतर अवसरों पर प्राथमिक भावनाओं में नहीं पायी जाती। बहसा दृष्टि-पथ में आया हुआ चित्र बरबस मन आकर्षित कर लेता है। वह इच्छा। १तत्र कामस्य सकल जातिसुलभवया' से लेकर 'पयन्ते कर्तव्यो नित्यं रसोइयभूत शवितककी विकृति-अभिनव भारती