पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/२४८

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रस-विमर्श १६१ इसमें डेढ़ हाथ के चूँ घुट लटकानेवाली न तो लौकिक नववधू ही है और न झमर-झमर करना, अड़ती हुई आना आदि अनुभाव हो हैं। है यहाँ एक अलौकिक, कविकल्पित लाज को छुई-मुई नायिका श्रालंबन और मिलन-मधुर स्वाभाविक लाज के लजीले कार्य अनुभाव । कवीन्द्र रवीन्द्र यह भाव प ले ही व्यक्त कर चुके है- द्विधाय जड़ित पदे कंप्रवक्ष नम्र नेत्रपाते स्मित हास्ये नाहीं चलो सलज्जित वासर शय्याते-स्तब्ध अद्धराते किसी बालविधवा को देखते ही हम जीभ दाबकर हाय-हाय करते हैं; आँखों में आंसू उमड़ आते है और दुःख हो दुःख होता है। पर ऐसी कविताओं को आंसू बहाते हुए भी हम पढ़ते हैं। एक ही बार नहीं, बार बार पाना चाहते हैं और आनन्द लाभ करते है। अभी तो मुकुट बँधा था माथ, हुए कल ही हल्दी के हाथ खुले भी न थे लाज के बोल, खिले भी चुम्बन शून्य कपोल ; हाय रुक गया यहीं संसार, बना सिन्दूर अंगार ! बातहत लतिका वह सुकमार, पड़ी है छिन्नाधार !-पंत इससे स्पष्ट है कि काव्यरस अलौकिक होता है और हमें अानन्द हौ प्रानन्द देता है । नित्य निरन्तर आनन्द-दान ही रस का कार्य है। कोई किसी को कहे कि 'तेरे लड़का हुआ है' तो पिता को जो प्रसन्नता होती है वह न तो रस ही है और न वह वाक्य ही काव्य । किन्तु कवि इसी हर्ष को विभाव, अनुभाव की प्रतीति में ऐसा स्वाभाविक सुख से विलक्षण बनाकर रख देता है कि वह महृदयों का हृदयाकर्षक होकर चमकने लगता है, अर्थात् वह हर्ष रस रूप में परिणत होकर आस्वादयोग्य हो जाता है । जैसे, ज्यों भूप ने स्वसुतसंभववृत जाना, ऐसे हुए मुदित विग्रह भान भूले। जैसे तपोनिरत आत्मनिधान योगी होता प्रसन्न मन अंतिम सिद्धि पाके ॥ राजा हुए मुक्ति और प्रसन्न ऐसे दो दंड एक टक ही लखते रहे थे। बोले तदा सचिव से सब राज्य में हों आनन्द, मंगल, कुतूहल खेल नाना ॥ ---सिद्धार्थ इसी रूप में सहृदय अपने हृदय को प्रतिफलित देखते हैं और यही सकलहृदय-समसंवेदना है। कवि लौकिक भाव को रखरूप देने के समय जब लौकिकता को पार कर जाता है तभी वह काव्य-रस की सृष्टि करने में समर्थ होता है। O १ 'पुत्रस्ते जातः' इत्यतो यथा हर्षों जायते तथा नापि लक्षणया । अपितु सहृदयस्व हृदयसंवादवलाद्विभावानुभावप्रतीतौ सिद्धस्वभावसुखादिविलक्षण परिस्फुरति ।-लोचन का० द०-१६