पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/२४७

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चौवांलिसवीं छाया रस-विमर्श काव्य को रसचर्चा से काव्य के रस का आस्वाद नहीं मिलता । वह सहृदयों- दिलदारों के हृदय से-दिल से अनुभव करने की-लुत्फ उठाने को वस्तु-चीजा है । इसीसे रस को 'सहृदयहृदयसवादी' कहा गया है। अर्थात्, सहृदयों के हृदय का अनुरूप होना-सहधर्मी होना रन का गुण है। काव्यों के अनुशीलन से और लोक-व्यवहार-निरीक्षण से विशद बना हुआ जिनका मानमदर्पण काव्य की वणनीय वस्तु को प्रतिबिबित करने की योग्यता रखता है वे ही हृदय को भावना में समरस होनेवाले सहृदय हैं' । अभिप्राय यह कि काव्य पढ़ते-पढते जिनका हदय ऐसा निर्मन हो जाता है कि उत्तमें काव्य के अन्तरंग से पैठने की शक्ति आ जाती है ; फिर जब वह कोई काव्य पढ़ता है तो उसके वर्णन में ऐसा मुग्ध हो जाता है, उसमें उसका मन ऐसा रम जाता है कि उसपे हटना हो नहीं चाहता। ऐसे ही व्यक्ति सहृदय कहलाते हैं। रस के दो उपादान है-वाह्य और प्रान्तर । वाह्य उपादान है कवि का काव्य, नाटक, उपन्यास आदि । श्रान्तर उपादान है चित्तवृत्तियाँ, मनोविकार वा राग । प्रचलित शब्दों में इन्हे भाव कहते हैं। काव्यणित विभाव, अनुभाव श्रादि वाह्य उपादानों से मन के भाव रस-रूप में परिणत हो जाते हैं। अभिप्राय यह कि लौकिक उगदानों से भी हमारे मन में हर्ष-शोक के भाव जाग उठते हैं और हर्षित शोकात होते हैं। पर ये भाव न तो रत है और न जिनसे ये भाव उठते हैं वह काव्य ही है। किन्तु इन्हीं स्वप्निल भावों पर जब कवि अपनी प्रतिभा का मायाजाल फैलाकर एक मनोरम सृष्टि कर देता है, काव्य का रूप दे देता है, तभी उससे सामाजिकों को रसानुभव होता है कि यही उसकी लौकिकता से अलौकिकता है। यही कारण है कि लौकिक शोक से हम शोकात्त ही होते हैं पर काव्य के करुण रस से भी हमः आनन्द ही प्राप्त करते हैं। शयन-ग्रह में आती हुई नववधू को देखकर क्या कभी हम उस रस का आस्वाद ले सकते है, जो इस कविता से रसास्वादन होता है- 'अरे वह प्रथम मिलन अज्ञात ! विकंपित मृदु उर, पुलकित गात, साकित ज्योत्स्ना-सी चुपचाप, जड़ित पद नमित पलक दृगपात; पास जब आ न सकोगी प्राण! मधुरता में सी मरी अजान, लाज कर छुई-मुई-सी. म्लान, प्रिये प्राणों की प्राण !-पंत' १ येषां काव्यानुशीलनाभ्यासवशाद्विशदीभूते मनोमुकुरे वर्णनीय तन्मयीभवनयोग्यता ते । हृदयसंवादभार सहृदबाः।-ध्वन्यालोकलोचन