पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/२४

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

चौथा आक्षेप एक दूसरे प्रगतिशील साहित्यिक के कुछ विचार ये हैं-“साहित्य-शास्त्रियो का कथन है कि कविता के तीन आवश्यक तत्त्व है-संगीत, रस और अलंकार।। “उनका यह शास्त्रीय मत है कि इन तत्त्वो से रहित रचना कविता नहीं हो सकती । 'संगीत कविता का तत्त्व नहीं है। 'आज रसोद्धार का कोई नाम तक नहीं लेता। 'रस-परिपाटी जीवित कविता की गति मे बाधक होती है। वह अवरोध है और एकमात्र राज्याश्रित कवियो की बनायी हुई है। वह आदिकवि के काव्य मे नहीं मिलती, न ही बाद को मिलती । यदि रस काव्य की आत्मा होता तो वह सवकी कविता मे मिलता। तथापि रस भी कविता का आवश्यक तत्त्व नहीं है। वह ( अलंकार ) काव्य का आवश्यक तत्त्व नहीं है - कविता कोई ऐसी वस्तु नही है जो शाश्वत है और अपरिवर्तनशील है। वह मनुष्य के साथ स्वयं निरन्तर विकसित हो रही है. "यदि अाज की प्रगतिशील शक्तियो की अवहेलना करके कविता पुनः अपने अतीत के तत्त्वो का प्रदर्शन करती है तो वह कविता मृत कविता होगी।... इसलिए, मजदूर-किसान के जीवन की समस्याएं, उनके भाव और विचार, उनके संघर्ष के तरीके, उनका समस्त आन्दोलन और उनकी समस्त प्रतिक्रियाए कविता के आवश्यक तत्त्व ही है । 'अब कविता जनसाधारण की वस्तु है और जनसाधारण के तत्त्व ही उनके आवश्यक तत्त्व है।" इन पंक्तियों से हमारी असहमति इम कारण से है कि ये विचार की कसौटी पर खरी नही उतरती और इनका लेखक प्रगतिवाद का अन्ध पक्षपाती है। अन्य कारण ये है- प्राच्य प्राचार्यों ने संगीत को काव्य का तत्त्व नहीं माना है। छंद और गुण के हो धर्म है, जिनसे कविता संगीतात्मक होती है। पाश्चात्य प्राचार्य और समालोचक भले ही इसे काव्यतत्त्व मानते हो। वे सभी काव्यतत्त्व की दृष्टि से इसे मानते हो, सो बात नहीं। कितने श्रुति-सुखदायक होने के कारण ही संगीतात्मकता को मानते है काव्य-तत्त्व की दृष्टि से नही । 'रस' काव्य का एक आवश्यक तत्त्व है । जो सर्वसम्मत है। पर, समालोचक महाशय इसे नहीं मानते। अलंकार एक तत्त्व माना गया है, पर आवश्यक प से नहीं। मम्मट का लक्षण यही बतलाता है ।२ वामन ने अलंकार को काव्य का तत्त्व माना है ; पर उन्होने अलंकार को सौन्दर्य कहा है। १. 'पारिजात', दिमम्बर, १९४६ । २. सगुणावनलकृती पुनम्ववापि । ३. सौन्दर्यमलंकारः।-काव्यालकार