लौकिक रस और अलौकिक रस १४६ उत्पन्न होते हैं, उनमें ये सब विघ्न नहीं रह सकते । एक विघ्न की बात लीजिये- हमारा व्यक्तिगत जो बोध है, अथवा सुख-दुख के रूप में जो प्रकाश पाता है, वही सब कुछ नहीं है ; बल्कि उसके साथ हमारा व्यक्ति-वैशिष्ट्य भी अज्ञात रूप से सम्बद्ध रहता है। उस सुख-दुःखादि से हमारा व्यक्तित्व एक पृथक वस्तु है । जो लोग हमारे सुख-दुःख का अनुभव करते है, वे उसकी व्यर्थता का अनुभव नहीं करते ; क्योंकि हमारे व्यक्तित्व का ज्ञान अनुभव-कर्ता को नहीं रहता। जब तक हमारे व्यक्तित्व से लिपटे हुए सुख-दुःख का ज्ञान न होगा, तब तक उसका ज्ञान अधूरा ही रहेगा। व्यक्तित्वशून्य सुख-दुख का यथार्थ रूप प्रकाशित नहीं हो सकता। इस प्रकार जो साधारण प्रत्यक्ष ज्ञान होता है, उसे विषय-रूप में किमीको अपेक्षा बनो रहती है। जब तक इस अपेक्षा की पूर्ति नहीं हो जाती, तब तक ज्ञान के बोच ज्ञान को विश्रांति नहीं होती। वह अपने को प्रकाशित करने के लिए अपना मार्ग हूँ दा ही करता है। प्रत्यक्ष ज्ञान में यह परापेक्षिता बगबर बनी हो रहती है। यह परापेक्षिता एंड-रूप से जैसे अपनेको प्रकाशित कर सकती है, वैसे अखंड रूप से नही । यह पगपेक्षता अखड-रूप से स्वप्रकाश का विघ्न है । ऐसे विघ्न अनेक हैं। काव्य-नाटक में जो आश्रय-रूप से प्रतीत होता है वह साधारण रूप में रहता है। इससे काव्यानुगत चेतना का जो उद्बोध होता है वह उसमें वैसे विध्न नहीं हो पाता | सागश यह कि साधारण लोकविषय जब काव्यगत होता है, तब वह काव्य- कला के प्रभाव से सब प्रकार के संबंधों से शून्य हो जाता है, परापेक्षिता-रूप दोष से रहित हो जाता है और देश, काल तथा व्यक्ति का कुछ भी वैशिष्ट्य नहीं रहने पाता। इस दशा में जब चेतनोद्वोध के साथ अन्तहृदय की वासना मिल जाती है तब रस-सृष्टि होती है। बिना बाधा-विघ्न के ही जब अन्तर्गत वासना रस-रूप में प्रकाशित होती है, तभी रस का चमत्कार प्रतीत होता है। यह अलौकिक रस में ही संभव है। सीता श्रादि के दर्शन से उत्पन्न राम श्रादि को रति का उद्बोध परिमित होता है-केवल राम आदि में ही रहता है । दुष्यन्त-शकुन्तला श्रादि में जो रति उत्पन्न हुई, उसका आनन्द उन्हीं तक सीमित था; किन्तु काव्य-नाटकगत गम-सीता, दुष्यन्त-शकुन्तला आदि का रति-भाव-विभाव आदि द्वारा प्रदशित होकर जो रसा- वस्था को प्राप्त होता है, वह व्यक्तिगत न रहकर अनेक श्रोता और द्रष्टा को एक साथ हो समान रूप से अनुभूत होता है, इससे वह अपरिमित होता है। दूसरी बात यह कि रामादिनिष्ठ जो रति होती है, वह लौकिक रहती है। अतः रस अपरिमित और लोक सामान्य न होने के कारण अलौकिक होता है। विघ्न की बात लिखी ही जा चुकी १ तदपसारणे हृदयसंवादो लोकसामान्यवस्तुविषयः । अ० गुप्त । पारमित्यात् लौकिकत्वात् सातरायतया तथ।।
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