पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/२२७

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काव्यदर्पण जमाता है तब सभी दर्शक झुंझला उठते हैं और उनके मुह से बुरा-भला निकल पड़ता है । यहाँ दर्शकों का एक ओर घृणा आदि का और एक श्रोर करुणा का आनन्द मिलता है ; पर प्रबलता करुणा की ही रहती है। उत्तम-प्रकृति पात्रों के सम्बन्ध को भावना श्रान्तरिक होती है और प्रिय होने के कारण उसकी क्रिया मन में बराबर होती रहती है। इससे यहां जो साधारणीकरण होता है वह दुष्ट-प्रकृति पात्रों के साथ नहीं होता। ऐसे पात्रों के सम्बन्ध को भावना रसिकों को जानकारी भर को जगा देती है। उसके प्रति सामाजिक का ममत्व नहीं रहता । ऐसे स्थानो में रसिको को 'प्रत्यभिज्ञा होती है-यों समझिये। जहां कोई बलवान दुबलों को दलित या पीडित करने में अपने बल का प्रयोग करता है और उससे अपने को कृतार्थ समझता है वहां सामाजिकों को जो अानन्द होता है वह यह स्मरण करके होता है कि हम पर भी बलवान अत्याचारो ने अत्याचार करने में ऐसा ही बल-प्रयोग किया था। पूर्वज्ञान का स्मरण ही प्रत्यभिज्ञा है। ऐसे स्थानो में साधारणीकरण का आनन्द नहीं होता। इस बात को डाक्टर भगवानदास भी कहते हैं-"एक किस्म ( स्पृहणीय रस ) वह है जो अपने ऊपर भयकारक-वीभत्सोत्पादक बनवान को सत्ता का स्मरण', अावाहन, कल्पना करके वह रस चखते हैं जो खल को अपने बल का प्रयोग दुर्बलों को पीड़ा देने के लिए करने से होता है।" किसी-किसी का कहना यह भी है कि अपनी कल्पना के बल से दुष्ट-प्रकृति पात्रों के स्थान पर अपने को अधिष्ठित कर लेने से साधारणीकरण हो सकता है और उससे उस भाव का, जिसे उक्त डाक्टर साहब रस कहते हैं, आनन्द भी मिल सकता है। पर सभी सामाजिकों के लिए यह संभव नहीं है। ___ यह ठीक है कि सभी सामाजिक एक प्रकृति के नहीं होते, यह मनोवैज्ञानिक सिद्धान्त है। इससे कुछ सामाजिक एक ओर जहां पीड़ित के प्रति अनुकम्पा के कारण करुण रस का आनन्द लेते हैं वहां दूसरी ओर क्रोधो पीड़क के प्रति कुछ “सामाजिक को घृणात्मक भावानुभूति होगी। वहाँ काल्पनिक आनन्द को ही विशेषता होगी। यह प्रत्यक्ष अनुभव से सिद्ध है कि बकरे के बलि को कितने श्रानन्द से देखते हैं और कितने उस स्थान से भाग जाते हैं। देखनेवाले वोभत्स रस का आनन्द लेते है और भागनेवाले करुण रस का । दर्शकों को पशुहन्ता के प्रति कोई दुर्भाव नहीं बहता; पर पलायनकर्ताओं को रोष नहीं तो घृणा अवश्य होती है और इसी भाव का उन्हें आनन्द होता है। दोनों प्रकार के व्यक्तियों को आनन्द प्राप्त होता है ; पर १ पुरुषार्थ