पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/२२५

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१३८ कान्यदपणा संचार न होगा; बल्कि क्रोध प्रदर्शित करनेवाले उस पात्र के प्रति श्रद्धा, घृणा आदि का भाव जागेगा। ऐसी दशा में आश्रय के साथ तादात्म्य या सहानुभूति न होगी, बल्कि श्रोता या पाठक उक्त पात्र के शीलद्रष्टा या प्रकृतिद्रष्टा के रूप में प्रभाव ग्रहण करेगा और यह प्रभाव भी रसात्मक हो होगा। पर इस रसात्मकता को हम मध्यम कोटि की ही मानेंगे।" यूरोपीय विचार के अनुशोलन का हो यह प्रभाव है कि शुक्लजी ने दो कोटि को रसानुभूति बतलायी है-एक संवेदनात्मक रसानुभूति प्रथम कोटि की और शोलद्रष्टात्मक रसानुभूति मध्यम कोटि की। सम्भव है, कहीं से निकृष्ट कोटि को रसानुभूति भी टपक पड़े। पहली बात तो यह है कि रसास्वाद भिन्न-भिन्न कोटि का नहीं होता! वह एक रूप ही होता है; क्योंकि उसे अखंड, स्वयंप्रकाश-स्वरूप और आनन्दमय कहा गवा है ।२ यहां यह बात कही जा सकती है कि साधारणीकरण द्वारा सभी सामा- जिको के हृदय की एकता होने पर भी विभिन्न व्यक्तियों की वासना के वैचित्र्य से उसमें विचित्रता आ सकती है। यहां यह भी कहा जा सकता है कि अानन्द-स्वरूप रसास्वाद सत्वोद्रक से ही होता है तथापि रजः-तमः की उसपर छाया पड़ती है और इनके मिश्रण से रसभोग की अनेक प्रणालियां हो जा सकती हैं। ऐसे स्थानों पर साधारणीकरण नहीं होता। दूसरी बात यह है कि जब पात्र किसी भाव को व्यञ्जना करता है वह अपुष्टावस्था में भाव ही रह जाता है और संचारी संज्ञा को प्राप्त होता है। यहाँ को अनुभूति भावानुभूति होगी। इसको व्यञ्जना को अवस्था में भी साधारणीकरण हंगा । क्योकि कोई भी भाव हो, सामान्यावस्था में ही श्राने से अपनी स्थिति रख सकता है। तीसरी बात यह कि यहाँ क्रोध की प्रबल व्यञ्जना की बात कही गयी है। उसका रूप ठीक नहीं। क्रोध का पालवन शत्रु है । जो बालंबन हो उसमें कुछ न कुछ शत्रु का भाव होना आवश्यक है । कितना हो क र प्रकृति का क्रोधो हो शत्रु- भाव-शून्य होने के कारण दोन या असहाय के प्रति क्रोध को व्यञ्जना नही कर सकता, प्रवल व्यञ्जना की बात तो दूर है। यदि वह करे तो कृत्रिम ही होगा, स्वाभाविक नहीं। इस दशा में सामाजिकों का मन नहीं रम सकता! चौथी बात यह है कि शत्र के प्रति किये जानेवाले क्रोध को कोई प्रबल व्यञ्जना करता है तो वहां 'अकाण्ड-प्रथम'-अनुचित स्थान में विस्तर-नामक चिन्तामणि १ ला भाग पृ० ३१४ । २ सत्योद्रे कादखण्डस्वप्रकाशानन्दचिन्मयः।-साहित्यदर्पण