१३६ काबदपव दपणकार कहते हैं कि विभाव, अनुभाव और संचारी का जो एक व्यापार है-समय-विशेष है वही साधारणीकरण है। अर्थात् असाधारण को साधारण बनाना है, असदृश्य को सदृश्य तक पहुँचाना है। वह अयमाण तथा श्रोता में, दृश्यमान तथा द्रष्टा में अभेद संपादित कर देता है। अभिप्राय यह है कि काव्य- निबद्ध विभाव आदि काव्यानुशोलन वा नाटकदर्शन के समय श्रोता और द्रष्टा के साथ अपने को संबद्ध रूप से प्रकाशित करते हैं। यह साधारणीकरण ही विभावन व्यापार है। प्रदीप और दर्पण में दो बाते दीख पड़ती हैं। पहले में दर्शक, श्रोता और पाठक के सामान्यतः विभावादि के साथ साधारणीकरण की बात है। दूसरे में 'प्रमाता' और 'तदभेद' के कथन से एक बात स्पष्ट हो जाती है । वह है आश्रय के साथ द्रष्टा-श्रोता का बँध जाना, दानों के मेदभाव का लुप्त हो जाना । किन्तु, दोनों आचार्यों के विचारो का निचोड़ इतना ही है कि विभाव आदि के सामान्य कयन में सभी का समावेश हो जाता है। साधारणीकरण में साधारणतः काव्यगत भाव सभी सहृदयों के अनुभाव का एक-सा विषय बन जाता है। यह बात दोनों में पायो जाती है । अतः इसमें मतभिन्नता को प्रश्रय नहीं मिलता। पण्डितराज साधारणीकरण को नहीं मानते । वे किसी दोष को कल्पना करते हैं और उसी दोष द्वारा अपनी आत्मा में दुष्यन्त श्रादि के साथ अभेद मान बैठते हैं। वे लिखते हैं, "प्राचीन आचार्यों ने विभाव आदि का साधारण होना ( किसी विशेष व्यक्ति से सम्बन्ध न रखना ) लिखा है। उसका भो किसी दोष की कल्पना किये बिना सिद्ध होना कठिन है। क्योंकि, काव्य में शकुन्तला आदि का जो वर्णन है उसका बोध हमें शकुन्तला ( दुष्यन्त की स्त्री ) श्रादि के रूप में ही होता है, केवल स्त्री के रूप में नही ।२ इस पर उनके शंका-समाधान भी पढ़ने के योग्य हैं। पण्डितराज भी एक प्रकार से साधारणीकरण मानते हैं ; पर वे कहते हैं कि शकुन्तला आदि की विशेषता निवृत्ति करने के लिए किसी दोष की कल्पना कर लेना आवश्यक है और उसो दोष से दुष्यन्त आदि के साथ अपनी आत्मा का अभेद समझ लेना चाहिये । यहाँ किसी-न-किसी रूप से अभेद की बात आने से साधारणीकरण का एक रूप खड़ा हो जाता है। यहाँ अभेद समझने की बात - व्यापारोऽस्ति विभावादेः नाम्ना साधारणीकृतिः। .. "तत्प्रमावे यस्याप्सन पाथोधिप्लवनादयः। प्रमाता तदमेकेन् स्वात्मानं प्रतिपद्यते। -सा दर्पण से समर्षि विभावादीनां साधारययं प्राचीनरूक्तं तदपि काव्येन शकुन्तलादिशब्दैः शकुन्ता की प्रतिपायमानेषु शकुन्तलादिषु दोषविशेषकरुपनं पिना दुरुपपादम् । -रसगंगाधर
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