पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/२१८

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

१३० काव्यदर्पण किसी-किसी कविता के, जिनमें वस्तु-विशेषों का यथार्थ वर्णन रहता है, पढ़ने से कहीं तो प्रत्यभिज्ञा होती है और कहीं कुतूहल-पुत्ति । किसीसे नवोन बातों का अनुभव होता है और किसीसे अपने मन का समाधान होता है। वहां-वहां एतन्मूलक ही आनन्द होता है । कहीं-कहीं भाषा, शैली, अलंकार आदि से तो कहीं चरित्रचित्रण से, कहीं सुख को क्षणभंगुरता से तो कही भवितव्य को प्रबलता आदि देख-सुनकर आनन्द होता है। कहना चाहिये कि कवि बड़े हो अनुभवो होते हैं। इस कारण उनकी कलाकृति से बहुत-सो जानने-सुनने और सीखने-सिखाने की बाते मालूम होती हैं, जिनसे श्रानन्द होता है। सर्वोपरि काव्यानन्द को मूल बात है काव्य नाटक के पात्रों की रहनेवालो तटस्थता। छत्तीसवीं छाया रसास्वाद के बाधक विघ्न मनुष्य का चित्त जब तक चंचल रहता है तब तक किसी बात का ग्रहण नहों कर सकता। उसके मन में कोई बात आती है और उड़ जाती है। श्रारमस्थ को दशा हो बोधदशा है। यह साधारण बातों के लिए भी आवश्यक है। रसबोध या रसानुभूति के लिए तो एक विशेष मानसिक अवस्था को श्रावश्यकता है । वह अवस्था सैद्धान्तिक ही नहीं, व्यावहारिक भी है। यह है चित्त की एकाग्रता। भरतसूत्र के टीकाकार अभिनव गुप्त का अभिमत है कि सर्वथा वीतविघ्न अर्थात् विघ्नविरहित रसनात्मक प्रतीति से जो भाव गृहीत होता है वही रस है । कहने का अभिप्राय यह कि जबतक विघ्न दूर नहीं होते तब तक रमप्रतीति नहीं होती, रसावाद नहीं मिलता। विघ्न दूर करनेवाले विभाव श्रादि हैं। संसार में संवित्-ज्ञान, रसन, श्रास्वादन आदि विघ्नविनिमुक्त ही होते हैं। ऐसे तो ( विघ्चे का अन्त नहीं; पर प्रधानतया सात विघ्नों का निर्देश किया गया है। विविघ्न है।- सर्वथा रसनात्मकतविघ्नप्रतीतिग्राह्यो भाव एवरसः। तत्र विघ्नापसारका । विभावप्रभृतयः। तयाहि लोके सकलविघ्नविविनिमुक्ला संवित्तिः । विनाश्चास्यां सप्ति । प्रतिपत्ताययोग्यता संभावनाविरको नाम । २-३ स्वगतत्वपरगतत्यनियमेन देशकालविशे- चावेशः ।४ निनसुखन्दि विवशीभावः। ५ प्रतीत्युपायवैकल्यस्फुटत्वाभावः। ६ अप्रधानता। '७ सरायोगश्च -अभिनवभारती ।