पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/२१५

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अनुभूतियों १२७ क्योंकि, दोनों में एक प्रकार को ही चेष्टाएँ दीख पड़ती हैं, तथापि इनमें आकाश- पाताल का अन्तर पड़ जाता है। __रसानुभूति-काव्य की उस अनुभूति को जिसमें मन रम जाता है, आँस बहाता हुश्रा भी पाठक, दर्शक या श्रोता उससे विलग होना नहीं चाहता, रस कहा जाता है। काव्यानुभूति और रसानुभूति में कोई विशेष अन्तर नहीं, पर कुछ लोग का विचार है कि काब्यानुभूति विशेषतः कवि को और रसानुभूति दर्शक, पाठक और श्रोता को होती है। यह कहा जा सकता है कि दोनों को दोनो प्रकार की अनुभूतियाँ होती हैं । दोनों का अन्योन्याश्रय रहता है । कवि जब काव्य की अनुभूति करता है और पाठक को उसमें रस मिलता है तभी वह काव्य कहलाता है। चौंतीसवीं छाया सौंदर्यानुभूति और रसानुभूति ग्रीस के सौंदय-विवेचन की जो परंपरा है उसमे भौतिक दृष्टि की ही प्रधानत है। संभवतः प्लेटो ने अमूर्त आधार की महत्ता को ध्यान में रखकर कविता कं संगीत के अतर्गत माना था। चूँ कि वे कला के आध्यात्मिक महत्त्व का मूल्य नह श्रांकते थे । इसलिर प्लेटों के शिष्य अरस्तू ने कला को अनुकरण कहा है; लेकिन हेगेल ने सौंदर्यतत्त्व को विस्तृति दी। उसने कला में धर्म और दर्शन की प्रतिष्ठ को महत्त्व दिया। हेगेल के अनुसार सौंदर्यबोध ईश्वर की सत्ता का परिचय पान है ; उसके द्वारा ईश्यर की सत्ता का अनुभव करना है। भारतीय काव्य-सिंद्धांत व इन सब बातो में अपनी विशेषता है। ___ कांट का कहना है कि जो बिना उपयोगिता के प्रसन्नता दे वह सौंदर्य है । जह पर उपयोगिता को प्रश्रय मिल जाता है वहाँ प्रसन्नता उपयोगिता के लिए हो जात है, सुन्दर वस्तु के लिए नहीं रहने पाती। सौंदर्य की वास्तविकता इसीमें है । वह प्रसन्नता का मूल स्वयं हो। ____सौंदर्य में मूर्त-अमूर्त का कोई भेद नहीं। सौंदर्य की सीमा में रूप-अरूप दो को ही रूप मिलता है। क्योंकि बिना रूप के हमें सौंदर्य-बोध नहीं होता। हम सौंदर्य-बोध से ही यह संभव है कि हम अमृत को भी मृत कर लेते हैं। भाव : रूप देना अमूर्त को मूर्त बनाना हो तो सौंदर्य-सृष्टि है । किन्तु, अन्य कलाओं की और काव्य-कला को सौंदर्य-सृष्टि में अन्तर है।। अन्तर है प्रभाव का1 किसी कलापूर्ण मूर्ति या चित्र को देखकर हम उसके रूप मुग्ध हो सकते है ; किन्तु साधारणतः भावमग्न नहीं होते। भावमग्न तो हम त