पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/२११

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१२३ रस-निष्पत्ति में भोगवाद अभिधा, भावना और भोग । इन्हें शब्दों के तोन व्यापार भी कह सकते हैं । रस के आविर्भाव की ये ही तीन शक्तियां हैं। अभिधा वह है जिससे काव्य का अर्थ समझा जाता है। भावना है अर्थ का अनुसन्धान-अर्थ का बार-बार चिन्तन । इससे काव्यवर्णित नायक-नायिका आदि पात्रों को विशेषता रह नहीं पाती और ये साधारण होकर हमारे रसास्वादन के अनुकूल बन जाते है। इसमें 'श्रयं निजः परो वेति' का भेद नहीं रह जाता। जनसाधारण के भाव हो जाने से-जनसाधारण के अपने हो जाने से सामाजिक भी रसोपभोग करने लगते हैं । भावना के इस व्यापार का नाम है साधारणीकरण । इसे भावनत्व व्यापार भी कहते है। तीसरी क्रिया है भोग या भोगव्यापार । इसका अर्थ है सत्वगुण के उद्रेक से प्रादुभूत प्रकाशरूप से आनन्द का ज्ञान । अर्थात् आत्मानन्द में वह विश्राम, जिसके द्वारा हम रस का अनुभव करते हैं। भावना के प्रभाव से साधारणीकृत विभावादिकों से आनन्दित होने को ही भोग या भोगव्यापार कहते हैं। यह आत्मानन्द वा आनन्दानुभव अन्य-सम्बन्धी ज्ञान से विरहित होने के कारण अलौकिक होता है-लौकिक सुखानुभव से विलक्षण होता है। सारांश यह कि काव्य-नाटकों के देखने-सुनने से अर्थबोध होता है। फिर भावना से सामाजिक इस ज्ञान को भुला देता है कि यह देखा-सुना अपना है कि दूसरे का । पुनः साधारणीकृत रति आदि से सामाजिकों को जो अनुभव होता है वही रख है । इस प्रकार काब्य की क्रियाओं से ही कार्य सिद्ध हो जाता है । इसमें य तो आरोप की आवश्यकता होती है और न अनुमान की। इकतीसवीं छाया रसनिष्पत्ति में अभिव्यक्तिवाद अभिनवगुप्त भरतसूत्र के चतुर्थ व्याख्याकार हैं ये भट्टनावक के मत को निराधार मानते हैं । इनके मत से भट्टनायक द्वारा प्रतिपादित तीनों वृत्तियों या क्रियाओं में भावना और भोग नामक दो क्रियात्रों को जो कल्पना की गयी है उनमें कोई शास्त्रीय प्रमाण नहीं है । अतः अमान्य हैं । अभिधा तो अर्थ के साथ लगा ही रहता है और भावो में भावकत्व गुण सहज ही विद्यमान है क्योंकि उसका अर्थ हो वह है । भोजकत्व का व्यापार व्यजना द्वारा सम्पन्न हो ही जाता है। एक बात और, केवल शब्दों द्वारा न तो भावना हो हो सकती है और न भोग हो । अतः भावना और भोग को शब्दव्यापार मानना निर्मूल कल्पना है ।