पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/२१

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१. किसी कुप्रथा को बुराई के वर्णन होने से ही कोई उपन्यास वीभत्स-प्रधान नहीं हो सकता । उपन्यास-भर मे कुप्रथा को बुराई हो तो भी वह वीभत्सप्रधान नहीं हो सकता। किसी प्रकार की कुप्रथा की बुराई का वर्णन वीभत्स के लक्षण मे नहीं आता। ऐसा उपन्यास उपदेशात्मक की श्रेणी मे आयेगा और इसका शिव-पक्ष प्रबल माना जायगा। इस उपन्यास का रस वही होगा जैसा कि उसके वर्णन से पाठको के मन पर प्रभाव पड़ेगा । मान लीजिये कि अबला पर अत्याचार की प्रबलता होने से क्रोध उपजेगा; समाज मे विधवा की दीनता दिखलाने पर करुणा उत्पन्न होगी। यह जान रखे कि घृणा की व्यञ्जना से ही वीभत्स-रस होता है। २. शोषक के कारण शोषित मे जो बुराई आती है वह करुणा का विषय नहीं। वह बुराई प्रतिकार की भावना मे फूट पडती है, जो क्रोध का विषय है। गाँधीजी के शुद्ध, शान्त, सात्विक सत्याग्रह मे भी क्रोध की ही भावना काम करती है । गाँधीजी भले ही इसके अपवाद माने जायें । जहाँ शोषक के प्रति शोपित की जो विवशता, असमर्थता और कादरता होगी, वहीं करुणा को स्थान मिल सकता है । केवल बुराई की भावना करुणा का विषय नहीं हो सकती। ____३. रस की दृष्टि से विश्लेषण की बात मानी गयी है। साधुवाद ! रामायण और महाभारत-जैसे महाग्रन्थो के मुख्य रम अविदित नहीं रहे तो कीट-पतंगो-जैते क्षण स्थायी क्षुद्र ग्रन्थो के मुख्य रसो का पता लगाना कोई कठिन बात नहीं है। इसके लिए काव्यशास्त्र का ज्ञान आवश्यक है। पाश्चात्य आलोचना का अनुशीलन प्राच्य रसतत्त्व के समझने मे कभी सहायक नहीं होगा। ४. हिन्दू-समाज मे वेश्याग्रो के प्रति आदर-प्रदर्शन से वीभत्स-रस नहीं हो सकता। इससे यह नहीं कहा जा सकता कि सेवासदन मे वीभत्स-रस है। 'मृच्छकटिक' नाटक मे 'बसन्तसेना' वेश्या है और उसके चरित्र का चारु चित्रण है । इससे क्या यह नाटक वीभत्स-रस का है ? आश्चर्य ! महान् आश्चर्य !! पात्र के ऊँच-नीच होने से कोई काव्य या नाटक या उपन्यास दूषित नहीं होता । उसका चित्रण ही उसे ऊँच-नीच बनाता है। कोई साहित्यिक शरच्चन्द्र के 'चरित्रहीन' की नाविका के प्राचारण से उसे कुत्सित उपन्यास कह सकता है ? " ५. आपके मस्तिष्क में पाश्चात्य विचार उछल-कूद मचा रहे है और हाथ में कलम है, जो चाहें कह डालें और लिख डाले; पर हम कहेंगे कि आपने जो शृगार- रसाभास की ओर से सच्चे शृङ्गार की ओर अग्रसर होना लिखा है, वह ठीक नहीं है । क्या शृगार है और क्या उसका रसाभास है, इसका यथेष्ट वर्णन 'काव्यदर्पण' में है, पिष्टपेषण की आवश्यकता नहीं। आभूषण का प्रेम आदि रसाभास में नहीं आते । भूषणार्थ मान-मनौअल होने से तो शृगार-रस ही है। भूठा आडम्बर,