रख समूहात्मक होता है ललित शब्दों की रचना के कारण मनोहर काव्य के द्वारा उपस्थित होकर सहृदय पुरुषों के हृदय में प्रविष्ट होते हैं तब सहृदयता और एक प्रकार की भावना- अर्थात् काव्य के बार-बार अनुसन्धान से उनमें से 'शकुन्तला दुष्यन्त की स्त्री है। इत्यादि भाव निकल जाते हैं और अलौकिक बनकर-संसार को वस्तुएँ न रहकर-जो कारण हैं वे विभाव, जो कार्य हैं वे अनुभाव और जो सहकारी हैं वे व्यभिचारी भाव कहलाने लगते हैं। बस इन्हीं के द्वारा पूर्वोक्त अलौकिक क्रिया के द्वारा रसों की अभिव्यक्ति होती है।" अभिनवगुप्त ने इसके तीन कारण दिखलाये हैं-हृदय-साम्य, तन्मयोभाव तथा साधारणीकरण । इनसे हो रस को अभिव्यक्ति होती है।' सर्वत्र साहित्यिक रसानुभूति का यही प्रकार है । जहाँ जिस स्थायी भाव की यह सामग्री एकत्रित हुई वहां उस रस को अभिव्यक्ति हुई। पचीसवीं छाया रस समूहात्मक होता है यद्यपि कही-कही ऐसा भी देखा जाता है कि अनुभाव और संचारी के बिना केवल विभाव से, कहीं केवल संचारी से, कहीं केवल अनुभाव से और कहीं दो से भी रस की व्यञ्जना होती है। ऐसे स्थानों पर केवल एक से हो या दो से हो जो रस की अभिव्यक्ति होती है उसे ऐसा हो समझना बड़ी भूल है। वहां भी विभावादि तीनों से समूहात्मक ही रस की व्यञ्जना होती है। विभावादि में जो एक रहता है वह अन्य दो का आक्षेप कर लेता है। अर्थात् वह एक व्यञ्जनीय रस के अनुकूल अन्य दो का बोधक हो जाता है। जहां विभावादि में से जो एक रहता है वह रस का असाधारण संबंधी होने के कारण अन्य रस की व्यञ्जना होने नहीं देता। सारांश यह है कि रस की अभिव्यक्ति प्रत्येक दशा में विभावादि समूहा- १ हृदयासंवादात्मकसहृदयत्वबलात्"तन्मयोभावोचितचर्वणाप्राणतया" तद्विभावादिसाधारण्ययवशप्तप्रबुद्धोचित निजरत्यादिवासनावेशवशात् । -अभिनव भारती का० द०-१३
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