पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/१९९

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रस की अभिव्यक्ति चौथा है-भावना की विविधता ( Variety ) और व्यापकता ( Range )। कोई भी रचना तब तक रुचिकर नहीं होतो नब तक उसमें भावों को विविधता नहीं हो । किसी एक ही भाव को किसी काव्य वा नाटक में उन्नत से उन्नततर करके दिखाया जाय, जो प्रतिभाशाली महाकवियों के लिए भी असंभव है, सामाजिकों को अमचिकर हो सकता है । कुशल कलाकारो की रचना में एक भाव को मुख्य बनाकर विविध भावों को अवतारणा देख कर हम आनन्दमग्न हो जाते हैं। यही कारण है कि शिक्षित और अशिक्षित, दोनों ही रामायण पढ़-सुनकर परमानन्द लाभ करते हैं; उसमें अपने जीवन के भले-बुरे सभी प्रकार के चित्र देखकर पुलकित होते हैं । अतः मनोवेगों की विविधता और व्यापकता के प्रदर्शन में ही साहित्यकार की साहित्यकारिता है। पांचवां है-भावना की उदात्तता, वृत्ति वा गुण ( Rank of quality ) । सभी भाव एक-से नहीं होते। कोई भाव उदात्त वा प्रशस्त होता है तो कोई सामान्य वा साधारण । उदात्त भावों की श्रेष्ठता स्वतः सिद्ध है। यह उदात्तता दो पक्षों से प्रकट होती है-कलापक्ष से और भावपक्ष से । कलापक्ष को अपेक्षा भावपक्ष मनोबेगों को अधिक तरंगित करता है और इसका प्रभाव हमारे चरित्र पर पड़ता है। भावों को सबसे वह उदात्तता प्रशंसनीय है जो श्रारमा को विकसित करती है। जो कला के लिए कला को माननेवाले हैं, उनका भावना के इस तत्त्व से खण्डन हो जाता है; क्योंकि हमारी चित्तवृत्तियों का लक्ष्य जीवन को सुखमय और उन्नत बनाना है। यह तभी संभव है जब कि एकदेशीय प्रानन्ददान को छोड़कर साहित्व के किसी एक लक्ष्य को छोड़कर उसको उदात्तता का गुण माना जाय, जिससे जीवन सुधरे । साहित्य का ध्येय सत्य, शिव, सुन्दर होना चाहिये । यही भावना की उदात्तता है। ____भावों को इस दृष्टि से देखकर जो रचना को जायगी, वह कल्याणकर होगी। हास्य से निन्दनीय का उपहास, क्रोध से अन्याय का प्रतिकार, शृङ्गार से स्ववंश- रक्षण आदि भावनाएँ जीवनोपयोगी बनेंगी। ऐसी भावनाएँ ही वाङमय के विभूषण होतो हैं । मनोरंजन की अधिकता से उनकी सर्वजनप्रियता बढ़ती है । यदि हम प्राच्य श्राचार्यों के विवेचन पर विचार करें तो यही कहेगे कि उनके 'विचार हमारे विचारो से मिलते हैं और जहां हमारे विचार सूक्ष्न और पूर्ण हैं वहां वे स्थूल और अपूर्ण है।