स्थायी और संचारी का तारतम्य आदि में आठ ही रस माने गये हैं। अनन्तर क्रमशः शम, कात्सल्य और भक्ति को गणना है । पंडितराज भक्ति को भावों में गिनते हैं।' ___ मानसशास्त्र की दृष्टि से रति, अमर्ष, शोक, हास, भक्ति, वात्सल्य, भय, विस्मय और शम; ये नौ स्थायी भाव हैं, जो रसत्व को प्राप्त होते हैं। क्रोध और जुगुप्सा व्यभिचारी भाव के ही योग्य है। इक्कीसवीं छाया स्थायी और संचारी का तारतम्य स्थायी भाव संचारी भाव से जातितः भिन्न होता है । अर्थात् पहला स्थिर,, दूसरा अस्थिर; पहला स्वामी, दूसरा सेवक और पहला श्रास्वाद्य और दूसरा आस्वाद-- पोषक है। __ स्थायी भाव के जो विभाव होते हैं वे ही संचारी भाव के भी होते हैं। इस दशा में संचारी के अन्य विभाव नहीं होते। यदि कहीं होते हैं, तो इनसे जो भावना उत्पन्न होती है उसका परिणाम स्थायी भाव में ही होता है। इससे इनका कोई महत्त्व नहीं है । जैसे- यौवन-सा शैशव था उसका यौवन का क्या कहना ! कुब्जा से बिनती कर देना उसे देखती रहना। गुप्त यहाँ गोपियों के प्रेम का पालम्बन विभाव श्रीकृष्ण हैं और चिन्ता आदि संचारी। पर गोपियों का कुब्जा के प्रति जो असूया संचारी है उसका विभाव स्थायी भाव के विभाव से भिन्न है । पर ये सब भो स्थायी के ही पोषक हैं। घनिक ने लिखा है कि समुद्र से जैसे लहरें उठती हैं और उसीमें विलीन हो जाती हैं वैसे ही रति आदि स्थायी भावों, संचारियों का उदय और तिरोधन होता है। विशेषतः अभिमुख होकर वर्तमान रहने के कारण ये व्यभिचारी कहे जाते हैं।' इससे स्पष्ट होता है कि जैसे समुद्र के होने से ही जल-कल्लोल उठते हैं वैसे ही स्थायी भावों के होने से ही इनका अस्तित्व है। दूसरी बात यह कि व्यभिचारी भाव स्थायी भाव के अनुकूल अपने कार्य करते हैं। तीसरी बात यह कि इनका पर्यवसान इन्हीं में होता है। महिम भट्ट ने लिखा है-स्थायी भावों का स्थायित्व निश्चित है; पर १. विशेषादाभिमुख्येन चरन्तो व्यभिचारिणः । स्थायिन्युन्मग्ननिर्मग्नाः कल्लोला इ. बारिधौ । दशरूपक
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