पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/१८८

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१०० काव्यदर्पण "यदि रघुनाथ न रोके इस वाक्य के कारण उत्साह भावमात्र रह जाता है। यहाँ वीर रस की पूर्णता नहीं होती। शत्र हमारे यवन उन्ही से युद्ध है, यवनीगण से नहीं हमारा द्वेष है। सिंह क्षुधित हो तब भी तो करता नहीं, मृगया, डर से दबी श्र गाली वृन्द की। -प्रसाद इससे क्रोधभाव को ही व्यञ्जना होती है। इसमें शत्रु, युद्ध, क्षुधित और सिह शब्द क्रोध भाव के व्यंजक है। ६. भय हिंसक जीवों का दर्शन, महापराध, प्रबल के साथ विरोध आदि से, उत्पन्न हुई मन की विकलता को भय कहते हैं। पाते ही घृताहुति हठात् पूर्ण वेग से जिस भॉति जागति हैं, सर्वभुक्-ज्वालाएं बिज्जु-सी तड़प उठती हैं, महाराज भी सहसा खड़े हुए धनुष लेते हाथ में। खोल उठा आर्यरक्त; भौहे बंक हो गयीं। पीछे हटे प्रहरी सशंक गोरी हो गया ।-श्रावित यहां सशंक होने की बात से केवल भय भाव की ही व्यंजना है, भयानक रस' का नहीं। तीनि पैग पुहुमी दई, प्रथम ही परम पुनीत । बहुरी बढ़त लखि बामनहि, में बलि कछक सभीत ।-प्राचीन यहाँ 'कछुक सभोत' होने से भयानक रस का परिपाक नहीं होता। यहाँ भयः भावमात्र है। ७. जुगुप्सा घणा या निर्लज्जता आदि से उत्पन्न मन आदि इन्द्रियों के संकोच को जुगुप्सा कहते हैं। लखि विरूप सूरपनखै रुधिर चरबि चुचुवात । सिय हिय में घिन की लता, भई सु द्व- पात । प्राचीन यहाँ दुपात' से घृणा को व्यंजनामात्र होती है। वीभत्स रस का पूर्ण परिपाक नहीं होता।" ' . ..