काव्यदर्पण यहाँ 'विशाखा' की उक्ति से 'राधा' का विषाद व्यजित है। का सुनाइ विधि काह सुनाया । का दिखाइ यह काह विखावा ।-तुलसी अयोध्यावासी की इस उक्ति में विषाद की व्यञ्जना है । २०. औत्सुक्य 'किसी प्रिय वस्तु की प्राप्ति में विलंब सहन न करना, इष्ट कार्य को तात्कालिक सिद्धों की इच्छा औत्सुक्य है। जल्दबाजी, जोर से सांस श्राना, पसीना छूटना, सताप होना आदि इसके अनुभाव हैं। मानुष हों तो वही 'रसखान' बसौं मिलि गोकुल गाँव के ग्वारन । जो पश्च हो तो कहा बस मेरो चरों नित नंद की धेन मझारन । पाहन हों तो वही गिरि के जो कियो ब्रज छत्र पुरन्दर धारन । जो खग हों तो बसेरौ करौं वहि कालिंदीकूल कदंब की डारन । इसमें जो ब्रजवास की इच्छा है उससे उत्सुकता व्यजित है। वयवती युवती बहु बालिका सकल बालक वृद्ध वयस्क भी। विवश से निकले निज गेह से स्वदूग का दुखमोचन के लिये । हरिऔध संध्याकाल में जंगल से लौटते हुए श्रीकृष्ण को देखने के लिए गोकुलवासियों की आतुरता में श्रौत्सुक्य व्यंग है। २१. निद्रा परिश्रम, नशा आदि के कारण वाह्यन्द्रियाँ जब विषयों से निवृत्त हो जाती हैं तब जो विश्राम करने की मनःस्थिति होती है वही निद्रा है। इसमें जम्हाई, अँगड़ाई. आँखों का झपना, उच्छवास श्रादि अनुभाव होते हैं। चिन्तामग्न राजा घूमता है उपवन में होकर विवेह-सा बिसार आत्मचेतना बंद हुई आँखें-हुआ शिथिल शरीर भी।-वियोगी वहाँ जयचन्द्र को निद्रा व्यंजित है। चपल वायु-सा, मानस पा स्मृतियों के घात । मावों में मत लहरे विस्मृत हो जा गात । जाग्रत उर. में कंपन नासा में हो वात । सोयें सुख दुख इच्छा आशायें अज्ञात ।-पंत इसमें खोलेको जाना है। यहाँ 'सोये सुख-दुख आदि के लिए आया है, कोनेवाले व्यक्ति के लिए नहीं इससे स्वशब्दवाच्य दोष नहीं लगता ।
पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/१६९
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।