पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/१६८

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संचारी भाव पूर्वाद्ध से जड़ता संचारी की व्यंजना है। हलै दुहूँ न चलै दुई बिसारिगे गेह । __ इकटक दुहूनि दुहँ लखें, अटकि अटपटे नेह ।-प्राचीन प्रेमी और प्रेमिका की इस निश्चलता में जडता व्यंजित है । १८. गर्व ।' धन, बल, विद्या आदि का अभिमान ही गर्व है। उपेक्षावृत्ति, अविनय, अनादर आदि इसके अनुभाव हैं । उत्साह-प्रधान गवं में वीर रस घनित होता है। साहस है खोलो सीकड़ों को तलवार दो, सामने खड़े हो, फिर देखो क्षण भर में बाजी लौट आती है महान आर्य देश की। दे दो शेष निर्णय का भार तलवार को।-पार्यावल पृथ्वीराज के वक्तव्य मे गर्व की व्य जना है। भुजबल भूमि भूप बिनु कीन्हीं, विपुल बार महिदेवन्ह दीन्ही । सहसवाहु भुज छेदन हारा परशु बिलोकु महीप कुमारा।-तुलसी परशुराम की इस उक्ति में गवं संचारी है। मेरे तप का तीव्र तेज है बढ़ रहा, रविमंडल को भेद ब्रह्मा के शीर्ष तक । फैला है आतंक जगत परमारण में। मिटा रहा हूँ सतत लिखावट भाग्य की।-भट्ट विश्वामित्र के इस कथन में गवं संचारी व्यजित है। १६. विषाद इष्ट-हानि, श्रारब्ध कार्य में असफलता, असहायावस्था श्रादि के कारण निरुत्साह होना, पुरुषार्थहीन होना विषाद है। ऊंची उसासें लेना, सन्ताप, व्याकुलता, सहायान्वेषण, पछतावा श्रादि इसके अनुभाव है। आज जीवन की उषा में हृदय में औदास्य भरकर तुम निराले ढंग से क्या सोचती हो मलिन तनमन ? विश्व का उद्गार वैभव समुज्ज्वल सुख साधना का क्या तुम्हें आनन्द-सा उबुद्ध करता है न कुछ भी ? यहाँ इस एकान्त में अत्यन्त निर्जन में सुमुखि क्या विश्व अनुपम जगमगाता और हंसता स्वर्ग-सा प्रिय . वेख पड़ता कुछ न तुम को भरा-सा मुखरागमय यह !-मह '