पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/१५८

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नायिका के अठाइस अनुभाव 'विच्छित्ति' का एक प्राचीन उदाहरण- प्यारी कि ठोढ़ि को विन्दु दिनेश' किधी बिसराम गोविन्द के जी को। चारु चुभ्यो कनिका मनि नील को कंधौं जमाव जभ्यो रजनी को। कंधों अनंग सिंगार को रंग लिख्यो वर मंत्र बशीकर पी को। फूले सरोज मै भौरी बसी किंधों फूल ससी मै लग्यो अरसी को। नायिका का नवीन नख-शिख वर्गान- बीच-चीच पुष्प गुथे किन्तु तो भी बन्धहीन लहराते केशजाल, जलद श्याम से क्या कभी समता कर सकती है नील नभ तड़ित्तारकाओं का चित्र ले क्षिप्रगति चलती अभिसारिका यह गोदावरी ? हरगिज नहीं। कवियों की कल्पना तो देखती ये भौए बालिका-सी खड़ी- छूटते हैं जिनसे आदि रस के सम्मोहन शर वशीकरण-मारण-उच्चाटन भी कभी-कभी। हारे है सारे नेत्र नेत्रों को हेर-फेर- विश्व भर को मदोन्मत्त करने की मादकता भरी है विधाता ने इन्हीं दोनों नेत्रों में। मीन-मदन फांसने की वंशी-सी विचित्र नासा- फूलदलतुल्य कोमल लाल वे कपोल गोल- चिबुक चार और हँसी बिजली-सी- योजनगन्ध पुष्प जैसा प्यारा यह मुखमण्डल- फैलाते पराग दिङमण्डल मामोदित कर- खिच आते मौरे प्यारे । देख यह कपोत-कण्ठ बाहुबल्ली कर सरोज उन्नत उरोज पीन-क्षीण कटि- नितम्ब-भार चरण सुकुमार- गति मन्द-मन्द छूट जाता धैर्य ऋषि-मुनियों का, देवों भोगियों की बो बात ही निराली है-