पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/१३२

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काव्यदर्पण ___ इस व्यञ्जना से सुचित व्यंग्य अर्थजनित होने से अर्थ होता है । अर्थात् किसी शब्द-विशेष पर अवलम्बित नहीं रहता। ( १ ) वक्तृवैशिष्ट्ययोत्पन्नवाच्यसंभवा वक्ता-कवि या कवि-कल्पित व्यक्ति के कथन की विशेषता के कारण जो व्यंग्यार्थ प्रतीत होता है वह वक्तृवेशिष्ट्ययोत्पन्न होता है। जिहि निदाघ दुपहर रहै, भई माघ की राति। तिहि उसार की रावटी, खरी आवटी जाति ॥ विहारी यहाँ कवि-कल्पित दुती-वक्त्री है जो उस विरहिणी नायिका की दशा उसके प्रेमी से निवेदन करती है। जिस उशीर की रावटी मे जेठ की दुपहरी भी माघ-सी ठण्ढी लगती है उस रावटी में भी वह नायिका गर्मी से उबलती-सी रहती है । इस वाक्यार्थं से “तुम किनने निष्ठुर हो, तुम्हारे प्रेम में उसकी दशा कितनो शोचनीय है, तुम इतने निष्ठुर नही बनो, उसकी व्याकुलता पर तरस खानो" आदि व्यंग्याथं वाच्य हो सम्भव है। अरे हृदय ! जो लता उखाड़ी जा चुकी । और उपेक्षाताप कभी जो पा चुकी ॥ आशा क्यों कर रहा उसीके फूल की। फल से पहिले बात सोच तू मूल की ॥ गुसजी यहाँ दुष्यन्त का शकुन्तला-त्याग रूपी पश्चात्ताप व्यंग्य है, जो वक्ता के वैशिष्ट्य से वाच्यार्थ द्वारा प्रकट होता है। वक्तृवैशिष्ट्ययोत्पन्नलक्ष्यसंभवा अहाँ लक्ष्यार्थ से व्यञ्जना हो वहाँ यह भेद होता है । पावक मरतें मेह घर, बाहक दुसह विसेखि । बहे देह बाके परस, याहि दुगन ही देखि ॥ बिहारी यहां नायिका अपनी सखी से कहती है-'श्रग्नि की लपट से वर्षा की झड़ी म्यादा दुखदायक है । क्योंकि, अग्नि की लपट से तो स्पर्श करने पर देह जलती है; मगर वर्षा की झाली के तो देखने हों से यहाँ वारिद-बूंदों के दर्शन से शरीर-ज्वलन की क्रिया में शब्दार्थ का बाष है। वहाँ बाध होने पर लक्षणा द्वारा अर्थ होता है कि विरहिणी नायिका बूंदों को देख नहीं सकती। इससे यह व्यंग्य निकलता है कि नायिका दुखदायक उद्दीपा वस्तुओं से अत्यन्त दुःखित है। यहां वक्तवैशिष्ट्ये इसलिए है कि वक्ता को विशेषता से ही वाच्या बारा यह व्यंग्याथ निकलता है।