पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/१२५

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

धर्मिगनप्रवीजनलक्षण ३ नवी छाया धमिधर्मगत लक्षणा मिगतप्रयोजनलक्षणा जहाँ लक्षणा का फल अर्थात् अनागम्य प्रयोजन धर्मी अर्थात् लक्ष्यार्थ (द्रव्य) में स्थित हो वहाँ धर्मिगत प्रयोजनलक्षणा होती है । जैसे- सिर पर प्रलय नेत्र में मरती मट्ठी में मनचाही। लक्ष्य मात्र मेरा प्रियतम है, मैं हूँ एक सिपाही॥ -भा० अात्मा 'मैं हैं एक सिपाही' में वक्ता स्वयं सिपाही है। इससे 'मैं हूँ' कहने से हो सिपाही का बोध हो जाता है। अतः प्रकृत में सिपाही-पद का मुख्यार्थ बाधित है। लक्षणा द्वारा सिपाही का अर्थ होता है--प्राणपण से इच्छामुरूप कठिन-से-कठिन कार्य करनेवाला । यहाँ सिपाही शब्द अर्थान्तरसंक्रमितवाच्य है। क्योंकि यह प्राण- निरपेक्ष कार्य करना रूप विशेष अर्थ को प्रतीति कराता है। यहाँ सिपाही में ही प्राणनिरपेक्ष कार्य करने को अतिशयता द्योतित होती है। अतः यहाँ लक्षणा का फल धर्मो सिपाही में होने से धर्मिगतप्रयोजनलक्षणा है। धर्मगतप्रयोजनलक्षणा जहाँ लक्षणा का फल अर्थात् व्यञ्जनागम्य प्रयोजन धर्म अर्थात् नयार्थ के धर्म (द्रव्य के गुण) में हो वहाँ धर्मगता लक्षणा होती है। जैसे- शराफत सदा जागती है वहाँ, जमीनों में सोता है सोना जहाँ।-सुदर्शन यहाँ 'जमीनों में सोना सोता है' का अर्थ है पृथ्वी पर बहुमूल्य अन्नराशि पड़ी रहती है। प्रयोजन है अन्नराशि की उपयोगिता की अतिशयता बताना । अतिशयतारूप प्रयोजन उपयोगिता है, जो धर्म है । अतः यहाँ धर्मगता है। ये लक्षणाएँ कहीं पद में होती है और कहीं वाक्य में होती है। दोनों के उदाहरण यथास्थान ऊपर आ गये है। दसवीं छाया अभिधा और लक्षणा शब्द को पहली शक्ति अभिधा है और दूसरी शक्ति लक्षणा । जहाँ लक्षणा शक्ति के बिना अर्थ को स्पष्टता नहीं होती वहाँ भी अभिधा का चमत्कार सहृदयों को चमत्कृत कर देता है। जैसे- मारुत ने जिसके अलकों में चंचल चुम्बन उलझाया।-पन्त का० द०-८