गौणी और शुद्धा वर भी अच्छा है, जर-जायदाद भी अच्छी है । ऐसे स्थानों में कहनेवालों का तात्पर्य लिया जाता है। यहाँ भी उपादानलक्षणा है। एक उदाहरण लें- जब हुई हुकूमत आँखों पर जनमी चुपके मैं आहों में। कोड़ों की खाकर मार पली पीड़ित की दबी कराहों में ॥-दिनकर 'कोड़ों की मार खाकर' ही क्रान्ति नही पलती। यह एक उपलक्षण मात्र है। इसमें वक्ता का तात्पर्य उन अनेक प्रकार के कर, अत्याचार, जुल्म और सितम से है जिनसे क्रान्ति बढ़ा करती है। यहाँ शब्दगम्य मुख्याथ का बोध नहीं, वक्ता के तात्पर्य रूप मुख्यार्थ की बाधा है। ऐसी जगह भी उपादानलक्षणा होती है। ऐसी हो यह पंक्ति भी है- ____फूटी कौड़ी पर विनोदमय जीवन सदा टपकता ।-निराला यहाँ फूटी कौड़ी का तात्पर्य तुच्छ, नगण्य धन से है । फूटी कौड़ी इसका उपादान करती है। लक्षणलक्षणा जहाँ वाक्यार्थ की सिद्धि के लिए वाच्यार्थ अपनेको छोड़कर केवल लक्ष्यार्थ को सूचित करे, वहाँ लक्षणलक्षणा होती है। ___ इसमें अमुख्याथ को अन्वित होने के लिए मुख्याथ अपना अर्थ बिल्कुल छोड़ देता है । इसलिए इसे जहत्स्वार्था भी कहते हैं । जैसे, 'पेट मे आग लगी है'। यह एक सार्थक वाक्य है। पर पेट में श्राग नहीं लगती। इससे अर्थवाध है। इसमें 'आग लगी है' वाक्य अपना अर्थ छोड़ देता है और लक्ष्यार्थ होता है कि 'जोर की भूख लगी है' इससे लक्षण-लक्षणा है। एक और उदाहरण लें- मैंने चाहे कुछ इसमें विष अपना डाल दिया हो। रस है यदि तो वह तेरे चरणों ही का जठन है ॥-भारतीय आत्मा यहां विष दोष का और रस गुण का उपलक्षण है। इसके अतिरिक्त रस को 'चरणों ही का जूठन' कहने में भी अर्थबाधा है । लक्ष्यार्थ होता है आपके निकट रहने से हो, आपके संसर्ग से ही, अच्छी वस्तु प्राप्त हुई है। यहाँ 'चरणों का जूटन' अपना अर्थ बिल्कुल छोड़ देता है। इससे लक्षणलक्षणा है ।
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