कवि, कविता और रसिक सातवीं छाया कवि, कविता और रसिक कवि और कविता की एक साधारण-सी परिभाषा है, जिसमें दोनों की स्पष्टः झलक पायी जाती है । यद्यपि बुद्धि और प्रज्ञा एकावाची हैं तथापि बुद्धि से प्रज्ञा का स्थान ऊँचा है। यह उसकी सानिका से प्रगट है । अभिनव गुप्त कहते है कि "अपूर्व वस्तु के निर्माण में जो समर्थ है वह है प्रज्ञा।" ' "जब वह प्रज्ञा नव- नवोन्मेषशालिनी अर्थात् टटकी-टटकी सूझवाली होती है तब उसको प्रतिभा कहते हैं। उसी प्रतिभा के बल से सजीव वर्णन करने में जो निपुण होता है, वही ककि है और उसीका कर्म, कृति वा रचना कविता है ।"२ कवि और कविता के इस लक्षण में किसीको कोई विचिकित्सा नहीं होगी। कवि असाधारण होता है। यह असाधारणता उसे पूर्वजन्मार्जित संस्कार से प्राप्त होती है । एक श्रुति का प्राशय है कि "जो कवि नहीं, कवीयमान है" अर्थात् कवि न होते हुए भी अपने को कवि माननेवाले है उन्हे कवि का वह दिव्य मानस कहां से प्राप्त हो सकता है जो रहस्यों को प्रकाश में लावे।"3 अभिप्राय यह कि कवि का मानस दिव्य होता है। दिव्य मानस व्यक्ति ही कविता करने का अधिकारी हो सकता है । कवि का ढोंग रचनेवाला कभी कवि नहीं हो सकता। हम भी साधारण लोकोक्ति में कहते हैं 'जहां न पहुँचे रवि वहाँ पहुँचे कवि।' रवि-किरणे अणु-परमाणु को भी आलोकित करती हैं ; पर कवि की दृष्टि उससे भी तीक्ष्ण होती है। उसे प्रतिभा-प्रसूत कल्पना को शक्ति प्राप्त है ! उसकी अन्तभैदिनी प्रतिवन्तु में प्रविष्ट होने की अद्भुत शक्ति रखती। हमारी इस बात का समर्थन संस्कृत की यह सूक्ति भी करती है कि "कवयः कि न पश्यन्ति" कवि क्या नहीं देख सकते ! "इस अपार संसार में कवि ही ब्रह्मा है । इससे वह जैसा चाहता है बैसा हो. सार हो जाता है ।" अभिप्राय यह कि कवि के इच्छानुसार काव्य-संसार का निर्माण होता है । “यदि कवि शृङ्गारी हुआ तो संसार रसमय हो गया और अगर १. अपूर्व-चस्तु-निर्माण-क्षमा प्रशा।-ध्वन्यालोक २. प्रज्ञा नबनवोन्नेषशालिनी प्रतिभा मता । तदनुप्राणनज्जोववर्णनानिपुणः कवि कवेः कर्म स्मृतं काव्यम् । ३. कवीयमानः क इह प्रयोचत् देवं मनः कुतो अधिप्रजाम् |-श्रुतिः
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