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इत्यादि उक्तियाँ रहस्यवाद की वैदिक भावनाएँ हैं। इस छोटे से निबन्ध में वैदिक वाङ्मय की सब रहस्यमयी उक्तियों का संकलन करना सम्भव नहीं; किन्तु जो लोग यह सोचते हैं कि आवेश में अटपटी वाणी कहने वाले शामी पैगम्बर ही थे, वे कदाचित् यह नहीं समझ सके कि वैदिक ऋषि भी गुह्य बातों को चमत्कारपूर्ण सांकेतिक भाषा में कहते थे। अजामेकांंलोहितशुक्ल कृष्णाम् तथा तमेकनेर्मि निवृतं षोडशान्तं शतार्याग्म् इत्यादि मन्त्र इसी तरह के हैं।

वेदों, उपनिषदों और आगमों में यह रहस्यमयी आनन्दसाधना की परम्परा के ही उल्लेख हैं। अपनी साधना का अधिकार उन्होंने कम नहीं समझा था। वैदिक ऋषि भी अपने जोम में कह गये हैं―

आसीनो दूरं व्रजति शयानों याति सर्वतः।
कस्तं मदामदं येवं मदन्यो ज्ञातुमर्हति॥

(कठ॰ १ । २ । २१)

आज तुलसी साहब की जिन जाना तिन जाना नाहीं इत्यादि को देख कर इसे एक बार ही शाम देश से आयी हुई समझ लेने का जिन्हें आग्रह हो उन की तो बात ही दूसरी है, किन्तु केनोपनिषत् केयस्यामतं तस्य मतं मतं यस्य न वेद सः का ही अनुकरण यह नहीं है, यह कहना सत्य से दूर होगा। यदेवेह तदमुन्न यवमुत्र तदन्विह इत्यादि श्रुति में बाहर और भीतर की