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पाप-पुण्य निलिप्त कृष्णचन्द्र की शिशु मूर्त्ति का शुद्धाद्वैतवाद नहीं।

दोनों कवियों के शब्द-विन्यास कौशल पर विचार करने से यह स्पष्ट प्रतीत होगा कि जहाँ आत्मानुभूति की प्रधानता है वहीं अभिव्यक्ति अपने क्षेत्र में पूर्ण हो सकी है। वही कौशल या विशिष्ट पद रचना युक्त काव्य शरीर सुन्दर हो सका है।

इसी लिए, अभिव्यक्ति सहृदयों के लिए अपनी वैसी व्यापक सत्ता नहीं रखती, जितनी की अनुभूति। श्रोता, पाठक और दर्शकों के हृदय में कविकृत मानसी प्रतिमा की जो अनुभूति होती है उसे सहृदयों मेंं अभिव्यक्ति नहीं कह सकते। वह भाव साम्य का कारण होने से लौट कर अपने कवि की अनुभूति वाली मौलिक वस्तु की सहानुभूति मात्र ही रह जाती है। इसलिए व्यापकता आत्मा की संकल्पात्मक मूल अनुभूति की है।