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प्रसादजी ने केवल ये आरोप ही नहीं किए, इनके लिए प्रमाणों की भी व्यवस्था की है। वैदिक काल के संबंध में वे लिखते हैं—'सप्तसिंधु के प्रबुद्ध तरूण आर्यो ने इस आनन्द वाली धारा (इन्द्र की उपासना) का अधिक स्वागत किया क्योंकि वे स्वत्व के उपासक थे।...आत्मा में आनन्द भोग का भारतीय आर्यों ने अधिक आदर किया। भारत के आर्यों में कर्मकाण्ड और बड़े बड़े यज्ञों में उल्लास पूर्ण आनन्द का ही दृश्य देखना आरंभ किया और आत्मवाद के प्रतिष्ठापना इन्द्र के उद्देश्य से बड़े-बड़े यज्ञों की कल्पनाएँ हुईं। किन्तु इस आत्मवाद और यज्ञवाली विचारधारा की वैदिक आर्यों में प्रधानता हो जाने पर भी, कुछ आर्य लोग अपने को उस आर्य संघ में दीक्षित नहीं कर सके। वे व्रात्य कहे जाने लगे।...उन व्रात्यों ने अत्यंत प्राचीन अपनी चैत्यपूजा आदि के रूप में उपासना का क्रम प्रचलित रक्खा और दार्शनिक दृष्टि से उन्होंने विवेक के आधार पर नए-नए तर्को की उद्‌भावना की।...वृष्णि संघ ब्रज में और मगध में अयाज्ञिक आर्य बुद्धिवाद के आधार पर नए-नए दर्शनों की स्थापना करने लगे। इन्हीं के उत्तराधिकारी वे तीर्थङ्कर लोग थे जिन्होंने ईसा से हजारों वर्ष पहले मगध में बौद्धिक विवेचना के आधार पर दुःखवाद के दर्शन की प्रतिष्ठा की।...फिर तो विवेक की मात्रा यहाँ तक बढ़ी कि वे बुद्धिवादी अपरिग्रही, नग्न, दिगंबर; पानी गरम करके पीने वाले और मुँह पर कपड़ा बाँध कर चलने वाले हुए। इन लोगों के आचरण विलक्षण और भिन्न-भिन्न थे।'