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किन्तु ध्वनिकार ने इस का प्रयोग ध्वनि के भीतर सुन्दरता से किया।

यस्त्वलक्ष्यक्रमो व्यङ्गयो ध्वनिवर्ण पदादिषु।
वाक्ये संघटनायां च समबन्धेपि दीप्यते॥

यह ध्वनि प्रबन्ध, वाक्य, पद और वर्ण में दीप्त होती है। केवल अपनी भंगिमा के कारण 'वे आँखें' में 'वे' एक विचित्र तड़प उत्पन्न कर सकता है। आनन्द वर्धन के शब्दों में―

मुख्या महाकवि गिरामलंकृति भृतामपि
प्रतीयमानच्छायैषाभृषालज्जैव योषिता॥३-३८॥

कवि की वाणी में यह प्रतीयमान छाया युवती के लज्जा भूषण की तरह होती है। ध्यान रहे कि यह साधारण अलंकार जो पहन लिया जाता है वह नहीं है, किन्तु यौवन के भीतर रमणी सुलभ श्री की बहिन ही है, घूँँघट वाली लज्जा नहीं। संस्कृत साहित्य में यह प्रतीयमान छाया अपने लिए अभिव्यक्ति के अनेक साधन उत्पन्न कर चुकी है। अभिनवगुप्त ने लोचन में एक स्थान पर लिखा है। परां दुर्लभां छायां आत्मारूपतां यान्ति।

इस दुर्लभ छाया का संस्कृत काव्योत्कर्ष काल में अधिक महत्व था। आवश्यकता इस में शाब्दिक प्रयोगों की भी थी, किन्तु आन्तर अर्थ वैचित्र्य को प्रकट करना भी इन का प्रधान लक्ष्य था। इस तरह की अभिव्यक्ति के उदाहरण संस्कृत में प्रचुर हैं। उन्हों ने उपमाओं में भी आन्तर सारुप्य खोजने का प्रयत्न किया था।