और दाढ़ी इत्यादि का भी उल्लेख नाट्यशास्त्र में मिलता है। केश-मुकुट भिन्न-भिन्न पात्रों के लिए कई तरह के बनते थे।
रक्षो दानवदैत्यानां पिककेशकृतानितु
हरिश्मश्रुणि च तथा मुखशीर्षीण कारयेत्।
(ना॰ शा॰ २८-१४३)
कोयल के पंखों से दैत्य दानवों की दाढ़ी और मूँछ भी बनाई जाती थीं। मुकुट अभिनय के लिए भारी न हों; इस लिए अभ्रक और ताम्र के पतले पत्रों से हलके बनाए जाते थे। कंचुक इत्यादि वस्त्रों का भी नाट्यशास्त्र में विस्तृत वर्णन है। इन वस्तुओं के उपयेाग में इस बात का भी विचार किया जाता था कि नाटक के अभिनय में सुविधा हो। नाटक के अभिनय में दो विधान माननीय थे, और उन्हें लोकधर्मी और नाट्यधर्मी कहते थे। भरत के समय में ही रंगमंचों में स्वाभाविकता पर ध्यान दिया जाने लगा था। रंगमंच पर ऐसे अभिनय को लोकधर्मी कहते थे। इस लेाकधर्मी अभिनय में रंगमंच पर कृत्रिम उपकरणों का उपयोग बहुत कम होता था। स्वभावो लोकधर्मी तु नाट्यधर्मी विकारतः
(१९३, अ॰ १३)।
स्वाभाविकला का अधिक ध्यान केवल उपकरणों में ही नहीं किंतु आंगिक अभिनय में भी अभीष्ट था। उस में बहुत अंगलीला वर्जित थी।
अतिसत्व क्रियाएँ असाधारण कर्म, अतिभाषित लोकप्रसिद्ध