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कौशिकीश्लक्ष्णनैपश्या शृंगाररससंभवा
अशक्याः पुरुषैसातु प्रयोक्तुम् स्त्री जनादृते।
ततोऽसृजन्महातेजा मनसाप्सरसो विभुः।

रंगमंच पर काम करने वाली स्त्रियों को अप्सरा, रंगोपजीवना इत्यादि कहते थे। मालविकाग्निमित्र में स्त्रियों को अभिनय की शिक्षा देने वाले आचार्यों का भी उल्लेख है। उन का मत है कि पुरुष और स्त्री के स्वभावानुसार अभिनय उचित है। क्योंकि स्त्रीणां स्वभाव मधुरः कण्ठो नृणां बलत्वश्च―स्त्रियों का कंठ स्वभाव से ही मधुर होता है, पुरुष में बल है। इस लिए रंगमंच पर गान स्त्रियाँ करें, पाठ्य अर्थात् पढ़ने की वस्तु का प्रयोग पुरुष करें। पुरुष का गाना रंगमंच पर उतना शोभन नहीं माना जाता था। एवं स्वभावसिद्धं स्त्रीणां गानं नृणां च पाठ्यविधिः।

सामूहिक पिंडीबंध आदि चित्रनृत्यों का रंगमंच पर अच्छा प्रयोग होता था। पिंडीबंध चार तरह का होता था—पिंडी, शृंखलिका, लताबंध और भेद्यक। कई नर्तकियों के द्वारा नृत्य में अंगहारों के साथ, परस्पर विचित्र बाहुबंध और संबंध कर के अनेक आकार बनाये जाते थे। अभिनय में रंगमंच पर इन की भी आवश्यकता होती थी। और पुरुषों की तरह स्त्रियों को भी रंगमंच-शाला की उच्च कोटि की शिक्षा मिलती थी। नाटकोपयोगी दृश्यों के निर्माण-वस्त्र तथा आयुधों के साथ कृत्रिम केश-मुकुटों