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यिणं हिरण्येनाभि कम्पयति।) सूत्र की टीका में कहा गया है। हिरण्यं दत्त्वा दत्त्वा स्वीकुर्वस्तं निराशं कुर्यात्। उस जंगली को छका कर फिर वह सोना अध्वर्यु यजमान के पास रख देता; और उसे एक बकरी दी जाती। संभवतः सोना भी उसे दे दिया जाता। तब सोम विक्रेता यजमान के कपड़े पर सोम डाल देता। सोम मिल जाने पर यजमान तो कुछ जप करने बैठ जाता। जैसे अब उस से सोम के झगड़े से कोई सम्बन्ध नहीं। सहसा परिवर्त्तन होता। हिरण्यं सहसाऽच्छिय पृषता वरत्रकाण्डेनाहिन्तिवा (७-८-२५ कात्यायन श्रौत सूत्र) सोम विक्रेता से सहसा सोना छीन कर उस की पीठ पर कोड़े लगा कर उसे भगा दिया जाता। इस के बाद सोम राजा गाड़ी पर घुमाये जाते; फिर सोम रस के रसिक आनंद और उल्लास के प्रतीक इन्द्र का आवाहन किया जाता। भरत ने भी लिखा है कि―

महानयं प्रयोगस्य समयः समुपस्थितः
अयं ध्वजमहः श्रीमान्महेन्द्रस्य प्रवर्तते।

देवासुर संग्राम के बाद इन्द्रध्वज के महोत्सव पर देवताओं के द्वारा नाटक का आरंभ हुआ। भरत ने नाट्य के साथ नृत्त का समावेश कैसे हुआ इस का भी उल्लेख किया है। कदाचित पहले अभिनयों में―जैसा कि सोमयाय प्रसंग पर होता था―नृत्त की उपयोगिता नहीं थी; किन्तु वैदिक काल के बाद जब आगमवादियों ने रस सिद्धान्त वाले नाटकों को अपने व्यवहार में प्रयुक्त