पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/९९

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काम्य-निर्णयः अस्य तिलक- इहाँ 'मुख' 4 'रूप', 'सेद' पै 'भपहति', 'मोती-सुति नासिब 'उत्प्रेच्छा', 'ठोड़ी पै 'संदेह', 'ग्रीवा' पै 'भ्रांति' (भ्रांतिमान), 'उरोजन पे'सुमन' (स्मरण) अलंकार पाईयत हैं, ताते (यहाँ हूँ) 'संसृष्टि है। संकर-अलंकार लच्छन बरनन 'दोहा' जथा- द्वै कि तीन भूषन मिलें, छीर-नीर के न्याह । अलंकार 'संकर' कहें, तहँ प्रबीन कबिराइ ।। संकर-भेद बरनन 'दोहा' जथा- एक-एक को अंग कहुँ, कहुँ सँम होइ प्रधान । कहूँ रहत संदेह में, 'संकर' तीन प्रमॉन ।। अंगादि ( अंगागी ) संकर उदाहरन 'दोहा' जथा - मिटत नाहिं निस-बासर हुँ, आँनन-चंद-प्रकास । बने रहे जाते उरज, पंकज-कलिका 'दास'। अस्य तिलक इहाँ 'रूपकालंकार' 'कायलिंग' अलंकार को अंग है। सम प्रधान संकर उदाहरन 'कवित्त' जथा- सुजस गबाबै, भगतँन-हीं सों प्रेम करें, चित अति ऊजरे भजत हरि-नाम हैं। दीन के दुखन देखें, आपने न सुख लेखें, बिप्र-पाँ परत तन मेंन-मोहे धाँमा जग पर जाहर है धरॅम निवाहि रहे, देव-दरसन ते लहत बिसरॉम हैं। 'दास जू' गँनाए जे असज्जैन के कॉम सममि देखो एई सब सज्जन के कॉम हैं । पा०-१. ( क० को०) जनावै । ( का० का० ) गनाये। २. [ का० का०] भाप हू सुख न लेखें। ३. [प्र०] [क० को०] [का० का० ] पापरत । ४. [३०] तेने में जु मोह धाम..| ५. [ का० का०] मोह । ६. [३०] काम, नहीं...। ___*क कौ० [रा० न० त्रि०] पृ० ४०३ [१]1 का० का० [रा०प०सिं०] पृ० ३३३ ।