अथ-तृतीयोल्लास: अलंकार-मूल कथनं 'दोहा' जथा- कहू बचन, कहुँ ब्यंग में,' परें अलंकृत आइ। . ता' ते कछु संक्षेप करि, तिन्हें देति' दरसाइ ।। वि०-"स्पष्ट व्यंग्य के बिना, अथवा उस (व्यंग्य) के सर्वथा अभाव में काव्य शब्द वा अर्थी द्वारा चमत्कारिक रचना हो उसे–'अलंकार' कहा जाता है । अथवा-किसी बात को अपनी स्वाभाविक साधारण बोलचाल से भिन्न शैली (प्रकार) के द्वारा अनूठे ढंग से चमत्कार पूर्वक वर्णन करने से अलंकार-युक्त कहा जायगा । यह कहने का ढंग अनेक प्रकार का होता है, यथा- "यश्चायमुपमाश्लेपादिऽलंकार मार्गः प्रसिद्धः स भणिति वैचित्र्यादुपनि निबध्यमानः स्वयमेवानवधिधत्ते पुनः शत शाखताम्......" यद्यपि प्रथम मुख्यतया अलंकार-'शब्दालंकार', 'अर्थालंकार' और 'उभया- लंकार' के नाम से तीन प्रकार के होते हैं और इनका वर्णन यथा-क्रम किया जाता है, पर 'दासजी' ने संस्कृत-साहित्यानुकूल इस पुरातन रीति-क्रम से भिन्न सूक्ष्म रूप से ही सही प्रथम शब्द'लंकार का वर्णन न कर अर्थालंकारों का वर्णन किया है।" अथ प्रथम उपमालंकार बरनन 'दोहा' जथा- कहुँ" काह-सॅम बरनिऐं, 'उपाँ' सोई जान। बिमल बाल-मुख इंदु-सौ, यों-हों औरों मॉन ॥ अनन् बरनन 'दोहा' जथा- वासौ वहै 'अनन्वऐ', मुख सौ मुख छबि देह । ससि-सौ मुख, मुख-सौ ससी, सो. 'उपमाँ-उपमेइ' ॥ पा०-१. (प्र०-३) ते...। २. (प्र०) तिहिं.... ३. (प्र०-३) में । ४. (प्र०-३) कहो...। ५. (भा० जी०) कछु...। ६. (प्र०-२) (३०) मान । ७. (प्र०-२) बाल-बिमल- मुख...। . (प्र०-२)(३०) जॉन । ६. (प्र०)(३०) अनन्वया...। १०. (प्र०-२) (३०) यो...1
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