काव्य-निर्णय "गृह-उपकरन जु भाज कछु, तू न बतावत मात । कहहु कहा करतव्य अब, चौस चल्यो यै जात ॥" कितु यहाँ उक्त वाच्यसंभवा-व्यंजना-द्वारा व्यंग्यार्थ नहीं बनता, क्योंकि इसमें नायिका के बाहर जाने की इच्छा का संकेत देनेवाला कोई शब्द वा उपकरण नहीं हैं। लच्छना-पूलक ब्यंग ते ब्यंग उदाहरन 'दोहा' जथा-- धुनि-धंनि सखि मुहिं ' लागि तू, सहे' दसँन-नख देह । परम हित् है लाल सों, आई राखि सँनेह ।।. अस्य तिलक इहाँ नायिका सखी, सों धिक-धिक की और धनि-धंनि कहति है, ये 'लच्छिना' मूलक व्यंग है, ताते सखी को अपराध-प्रकासन है, (सो) पै दूसरी व्यंग है। वि-"दासजी का यह दोहा" लक्ष्य संभवा-व्यंजना का उदाहरण है। यहाँ वाच्यार्थ में सखी वा दूती की प्रशंसा है, पर उसके अंगों में रति-चिह- दशन और नखच्छत, देखकर और उनसे यह जान लेने पर कि यह मेरे प्रिय के साथ रमण कर आयी है, अतः उसके प्रति नायिका-द्वारा प्रशंसात्मक वाक्य कहना असंभव है। इसलिये यहाँ मुख्यार्थ का बाध है। इस वाच्यार्थ (मुख्यार्थ) का लक्ष्यार्थ की विपरीति लक्षणा से यह प्रकट किया जाता है कि-- "तूने ( सखी ने ) उचित कर्तव्य नहीं किया, अपितु मेरे प्रिय के साथ रमण कर विश्वासघात ही किया है। मुझसे स्नेह नहीं, शत्रुता करती है।" इस लक्ष्यार्थ से बोधव्य-श्रोता-दूती वा सखी के वैशिष्ट य से उस ( सखी) का अपराध-प्रकाशन रूप व्यंग्यार्थ प्रतीत होता है, वही लक्षणा का प्रयोजन रूप व्यंग्यार्थ है। साथ ही नायिका के इस कथन में--अपने नायक के विषय में, अपराध-सूचन रूप व्यंग्यार्थ है, जो इस लक्ष्यार्थ-द्वारा सूचित होता है। जहाँ 'लदासंभवा श्रार्थी व्यंजना होती है, वहां लक्षणामूला-शान्दी-व्यंजना भी छिपी-जगी रहती है, क्योंकि जो व्यंग्य लक्षणा का प्रयोजन रूप होता है, वही पा०-१. (प्र०-२) सखि धनि-धनि मो"। (प्र०) मोहि । (प्र०-३)... मोहि काज... २.(प्र०-३)"दसैन नव देह । ३. (प्र.) है"
- भ्यं० मं० (ला० भ०) पृ० २५ ।