पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/८०

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काव्य-निर्णय उद्यत नायिका के प्रति उसकी अंतरंग 'सखी' की उक्ति है, अभिसार का रोकना व्यंग्याथ है।" ___"गार रस के स्थायी उद्दीपन विभाव में 'सखा' और "सखी" का विशेप स्थान है । सखी, जैसा दासजी कहते हैं- "तिय-पिय की हितकारिनी, 'सखी' कहें कविराउ।" ~ नि० (दास) पृ० ७० और यह चार प्रकार की कही है, जैसे -"हितकारिणी, ज्ञान-विदग्ध, अंतरंगिणी और बहिरंगिणी", एवं इनके कर्म भी- "मंउन, सिच्छादेन अरु उपालंम, परिहास । २०प्र० (रसलीन) पृ० ७५ चार प्रकार के कहे हैं। दासजी ने सखि-कर्मों में वृद्धि की है। आपके मतानुसार सखि-कर्म- "मंउँन, संदरसन, हँसी, संवहन सुभ धर्म । मान-प्रवरजन, पत्रिका-दान, सखिन के कर्म ॥ उपालंभ, सिच्छा, स्तुति, बिनै यहच्छा-उक्ति । बिरह-निवेदन-जुत सुकवि, बरनत है बहु जुक्ति ॥" -, नि० (दास) पृ० ७५ दासजी ने 'प्रस्ताव-वैशिष्ट्य रूप यह अपनी उक्ति-"बौरी, बासर बीत ते" को संस्कृत काव्य-प्रकाश'-कार के भाव से ली है । यथा- " यते समागमिष्यति तव प्रियोऽध प्रहरमात्रेण । एव मेव किमित तिष्ठसि तत्सखि सज्जय करणीयम् ॥ -का० प्र० (मम्मट) और कन्हैयालाल पोद्दार ने 'काव्यकल्पद्रुम-रसमंजरी के तृतीय स्तवक में इसका अनुवाद इस प्रकार किया है- 'सुनियत तव प्रिय भात हैं, साँम-समें सखि भाज । करत न क्यों उपकरन तू, क्यों बैठी बे काज ॥" अतएव दासजी की परम मनोहर उक्ति के आगे यह अनुवाद कितना निष्प्राण है, यह कहने-सुनने की बात नहीं।" (5) देस-विसेख ते बरनन 'दोहा' जथा- हों असक्त, ज्यों-त्यों इतै सुमन-चुनोंगो चाहि । माँनि बिनै मेरी भली, और ठौर तू जाहि ॥