पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/७९

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काव्य-निर्णय अलग स्थान-निर्देश क्यों करते। अस्तु, इन में भेद है और बड़ा अंतर है। श्रीमान् , वचन-विदग्धा का नायक (उसका) पूर्व परिचित है, वह जाना हुआ है, उसे बालापन का 'साथी' और 'यार' भी कह सकते हैं और 'स्वयंतिका' का नायक अपरचित है, पहिले का लव-लेश नहीं हैं, जो भी एकांत स्थान में मिल जाय उसी के प्रति अपनी कामेच्छा नायिका वचन-वैदग्ध-द्वारा प्रकट कर सकती है, पर वचन-विदग्धा ऐसा नहीं करती, अपितु अपने पूर्व परचित नायक को देख कर ही किसी अन्य के द्वारा व्यक्त करती है। जैसा पूर्व 'वचन-विदग्धा' के लक्षण में-- "जो तिय सेन-संकेत की, करें मीत कों गोइ । काहू कों दै बीच तो 'बचनविदग्धा' होइ ॥ करै सेन • संकेत वा रचे जाइ जो प्रीति । बिन अंतर तिय पुरुष सों, 'स्वयंदूतिका' रीति ॥" -२० प्र० (रसलीन) पृ० ३१ और खंडिता उदाहरण, जैसे-- "मारग-बीच 'पयोधर' पेखि के, कोंन को धीरज जो न गयो है। 'भजन जू' नदिया बही 'रूप' की, नाउ नहीं, रवि हू प्रथयौ है॥ पंथी, रेन बसौ इहि बेर, भलो तुम को उपदेस दयौ है। या मग-बीच मिले वह नीच, जो पावक में जरि प्रेत भयौ है।" - स० (मनालाल) (७) प्रस्ताव बिसेख ते बरनन 'दोहा' जथा- बौरी,' बासर-बीततें, पीतम भावनहार । तकै दुचित कति, सुचित कै साजै उचित सिंगार ।। अस्य तिलक इहाँ उचित सिंगार के प्रस्ताव ते यै जाँन्यों जात है के (नायिका) पर पुरुष वैजाँनि लगी है। वि०-"वक्ता के प्रस्ताविक शब्दों के अर्थ से व्यंग्य निकलना-इसे "प्रक रण वैशिष्ट्य", अर्थात् विशेष प्रकरण होने के कारण जहाँ व्यंग्यायें सूचित हो • भी कहते हैं। अतएव यह दोहा उपनायक के पास अभिसार को जाने के लिए पा०-१. (प्र०) बैरी.... २. (सं० प्र०) तकै दुचित कित है सुचित, साजहि उचित... (का० प्र०) (३०) तकै दुचित है मुचित कत...!

  • , का० प्र० (भानु) पृ० १० । व्यं० म० (ला० भ०) पृ० २३ ।