४१ काव्य-निर्णय "जागे हो रेंन तुम्ह सब, नेना भरुन हमारे । तुंम्ह कियौ मधु-पान, चूंमत हमारौ मन, काहे ते जु नंद-दुलारे ॥ डर नख-चिन्ह तिहारें, पीर हमारें, कारन कोंन पियारे। 'नंददास' प्रभु न्याइ स्याँम-घन, बरखे अनंत, हम पै झूम-९ मारे ॥" नंददास जी के इस पद पर रीति-काल के कविवर 'विहारीलाल' की यह उक्ति याद आ गयी है, जैसे---- "बाल, कहा लाली भई, नोयन-कोयन माँहिं। लाल, तिहारे गँन की, परी हगन में छाँहि ॥" --सतसई, श्रस्तु- "खुमार-मालूदा भाँखें, बल जबीं पर दर्द है सर में। रहे तुम रात-भर बेचैन किस कम्बख्त के घर में ॥" (५) वाच्य-बिसेख ते बरनन 'सवैया' जथा- भोंन-अँध्यारे-हुँ चाँहिं अँध्यारें चमेली के कुज के पुंज बने हैं । बोलत मोर, करें पिक सोर, जहाँ-तहाँ गुजत भोर घने हैं। 'दास' रच्यो अपने ही बिलास कों, मेंन जू हार्थंन सों अपने हैं। कूल कलिंदजा के सुख मूल, लताँन के बृ'द बिताँन तँने हैं । अस्य तिलक इहाँ बाच्यार्थ ते सहेट-जोग और कों जनायौ (ताते) बिहार की इच्छा व्यंजित होत है। वि०-"उत्कृष्ट विशेषणों वाले वाक्य की विशेषता से व्यंग्याथ सूचित होना वाच्य-विशेष अथवा वाच्य-वैशिष्ट्य-ध्वनि कही जाती है। अतएव दासजी ने यहाँ संकेत-स्थल के प्रति सभी कामोद्दीपक विशेषणवाले वाक्यों-द्वारा रमणोत्सुक नायक की नायिका के प्रति 'रति' की प्रार्थना व्यंग्याथ है। पा०-१. (प्र०) भोंन अँधारे हु चाहि अँध्यार । (१० नि०) भोंन अँधेरे हु चाहि अँधेरे । (२० कु०) भोन अँध्यारो-ही चाहि अँध्यारो । (व्यं० म०) भोंन अध्यार हू चाहि अँधेरौ। २. (प्र०-२) (भा० जी०),...के कुजन पुज...। (का० प्र०) (व्यं० म०)...के कुज के पुज तेने हैं। (र० कु०) चमेली के पुज के कुज.... ___* नि (भिखारीदास) १०, ६ । २० कु० (भयोध्या नरेश) पृ० ५० । का० प्र० (भानु) १०७ । व्यं० म० (ला० भ०) पृ० २२ ।
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