काव्य-निर्णय मेरे प्रान-पान स्याँम परम सुजॉन सुनों, माज मलसाँन, अंगरान कहो काहे सों ॥" -२०२० (ग्वाल) "लाल, एक ग-भगिन ते जारि दियो सिब मेंन । करि लाए मो दहन कों, तुम है पावक-नेन ॥" -२०प्र० ( रसलीन ) पृ० २१, एक बात और, वह यह कि "अाजकल के काव्य-मर्मज्ञों ने, जिनमें डुमरांव के पं० नकछेदी तिवारी उपनाम 'अजान कवि' रचयिता-मनोज-मंजरी अति प्रमुख हैं, स्वकीया नायिका के मान-भेदानुसार धीरादि-भेद तथा खंडिता- भेद (जो स्वकीया-परकीया तथा सामान्या-तीनों में होता है ) को एक मानकर लिखते हैं कि "धीरादि भेद और खंडिता में क्या अंतर है ? प्रायः उदाहरण शंकर देख पड़ते हैं और जिनसे पूछता हूँ, यथार्थ उत्तर न देकर चुपके हो बैठते हैं--इत्यादि।" इसी प्रकार अन्य महानुभावों ने भी अपने-अपने विचार-विभ्राट प्रकट किये हैं। अस्तु, यहाँ इन महानुभावों--काव्य-मर्मज्ञों ने यह बात जो बहुत बारीक नहीं, अपितु मोटी-सी है, भुला दी कि धीरादि नायिका के पास पति ( नायक) को सापराध-प्रमाणित करने का कोई प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं होता, केवल अनुमान के सहारे वा कल्पना के बहाने ही कुछ या विशेष देरी से नायक के आने पर मान के कारण धीरादिभेदों में परणित हो जाती है। देरी से पाने के अनेक उचित कारण हो सकते हैं, जैसा "मीर" ने कहा है- "जिगर कावी, नाकामी, दुनिया है आखिर । नहीं पाये जो 'मीर' कुछ काम होगा ॥" ___-शे०-प्रो०-सु० ( गोयल) पृ० ४७ फिर भी नायिका अपने चंचल मन के कारण 'नायक' को अन्यत्र अनुरक्त मान उक्त भेद में रल--घुल मिल जाती है। खंडिता में यह बात नहीं, वहाँ नायिका पर-स्त्री-संभोग-चिन्हों को देखकर ही नायक के प्रति कठोर होती है - उससे कहा-सुनी करती है, जैसे- "अनंत रमे रति-चिन्ह लखि, पीतम के सुभ गात । दुखित होइ सो 'खंडिता', बरनत मति भवदात ॥" ___ --म. म. (भवान) पृ. ६२, खंडिता का उदाहरण रीति-काल से परे भक्ति-काल (पद-साहित्य ) का भी देखें, कितना सुंदर है, यथा-
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