काव्य-निर्णय और ताड़न-द्वारा अपना रोष प्रकट करे, "प्रौढा-धीराधीरा"-जो वक्रोक्ति तथा भय-प्रदर्शन-द्वारा नायक को दुखित करती हुई मान-पूर्वक रति में उदासीन रहे-इत्यादि छह प्रकार की कही जाती हैं। यथा- "बक्र-उक्ति पति सों कहै, मध्याधीरा नारि । धीराधीर उराहनों, बचन अधीरा गारि ॥ उदासीन अति कोप ते, पति सों प्रौदाधीर । तजै अधीराधीर अरु तादन करै अधीर ॥" -भ० वि० (देव) संस्कृत-साहित्य मे लेकर ब्रजभाषा के रीति-साहित्य तक धीरादि नायिका- लेखन के स्थान निर्देश में विभिन्न मत हैं । अस्तु, कुछ कवियों ने इसे केवल स्वकीया-अंतर्गत मानते हुए संस्कृत रीति-शास्त्र के अनुसार ज्येष्ठा-कनिष्ठा--जो पति-प्रेम के न्यूनाधिक्य के कारण छोटी-बड़ी कही जाती हैं, के अंतर्गत लिखा है, क्योंकि इनका मत है कि नायक जब ज्येष्ठा के पास से कनिष्ठा के सामीप्य में जाता है, तब धीगदि भेदों की उत्पत्ति होती है। केशव ने यह बात नहीं मानी हैं। उन्होंने मध्या-प्रौढ़ा के वर्णनों के साथ-साथ इसे भी लिखा है। देव ने मान-भेद के साथ धीरादि भेदों को लिखा है। दासजी ने इसे खंडिता-जो परकीया में भी माना गया है, के साथ वर्णन किया है और चिंतामणि, मतिराम तथा रसलीनजी ने अपने-अपने ग्रंथों में इन मध्या-प्रौढा- धीरादि भेदों को स्वकीयांतर्गत मान उनके साथ ही लिखा है-माना है। इनके उदाहरण भी बहुत सुदर-सुदर प्रस्तुत किये हैं। दो उदाहरण, जैसे-- "स्वारथ में रत हैं सब ही, परमारथ-साधत नाहिंन कोऊ । हैं परमारथ में रत लोय, 'गुलाब' कहै बिरले जस जोऊ ॥ जो परमारथ-स्वारथ-हीन, सो भारस-लोभित कीरति-खोऊ । हो तुम नीति-निधान लला, परमारथ-स्वारथ साधत दोऊ ॥" -वृ० व्यं० ० (गुलाब) अथवा- "काल्हि न इकादसी-ही ताते कहूँ जागे भाप, ___ जाप लागे कैथों काहू कॉम के उमाहे सों। कैधों दिग-भूलें भूले धुमरि न पायौ घर, कैचों कहूँ उमरी सुनत रहे लाहे सों॥ 'ग्वाल कवि' कैचों रहे चौसर के खेलन में भौसर बन्यों न किधों काहू मीत चाहे सों।
पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/७४
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।