६८६ काव्य-निर्णय वि०-"दासजी कहते हैं प्रकृति-नायक तीन प्रकार का होता है, यथा- दिव्य, अदिव्य और दिव्यादिव्य ये तीनों-हो क्रमशः स्वर्गीय देवता, मनुष्य तथा मनुष्य रूप में प्रकट-अवतार विशेष होते हैं। ये दिव्य, अदिव्य और दिव्यादिव्य-ही आगे चलकर 'धीरोदात्त' (जिसमें उत्साह प्रधान हो ), 'धीरो- द्धत,' ( जिसमें क्रोध-प्रधान हो ), 'धीर ललित' (जिसमें स्त्री विषयक प्रेम- प्रधान हो) और 'धीर शांत' (जिसमें वैराग्य प्रधान हो ) बन जाते हैं तथा ये दिव्यादि-दिव्य तीनों भेद पुनः क्रमशः धीरोदात्तादि चार-चार रूपों में और परणित हो जाते है। ये धीरोदात्तादि-उत्तम, मध्यम और अधम भी क्रमशः होते हैं। अस्तु दासजी का कहना है कि जो पात्र जिस प्रकार का हो, उसे उसी प्रकृति के अनुसार वर्णन करना चाहिये। ऐसा न करने पर वहाँ प्रकृति के प्रतिकूल प्रास्वाभाविक वर्णन हो जाने से उक्त-"प्रकृति विपर्यय" दोष हो जाता है। आगे दासजी कहते हैं-शोक, हास्य, रति अद्भुतादि रस अदिव्य नायक में ही वर्णन करने चाहिये दिव्य-नायक में नहीं, किंतु दिव्यादिव्य में इन्हें वर्णन कर सकते हैं। अस्तु, ये दिव्यादिव्य-विभूषित चारों नायक धीरोदा- त्तादि क्रमशः वीर, रौद्र, शृगार और शांत-रस के पोषक हैं । स्वर्ग-पाताल का जाना, समुद्र-उल्लंघन करना और क्रोध से भस्म करना श्रादि कार्य "दिव्य" नायक स्वाभाविक रूप से कर सकते हैं, इसलिये इनका संभोग-शृंगारात्मक रति वर्णन करना अयोग-प्रकृति-विपर्यय-दोष है, क्योंकि माता-पिता का श्रृंगार- भाव रसश लोग वर्णन नहीं करते । अथ कविता-विचार कथन जथा- पाटी-सी है परिपाटी कवित्त की, ताको त्रिधा-बिधि बुद्धि बनाई। तीन एक सुपंथ कर बर माँन-लों 'दास' भरै जिहिं ठाई ।। पंथै-पाइ भलौ कोऊ खोले, ज्यों होत सुदार की कील' सुहाई। एकैन पंथ-बिचार को माने, बिदार-हो जाने कुठार की न्याँई ।। पुनः जथा- अँमित काव्य के भेद में बरने मति-अनरूप । संपूरन कीन्हें सुमरि, श्रीहरि-नॉम अँनूप ॥ पा०-१. (प्र.) करै...। २. (का०) (३०) (प्र०) इक...1 ३. (सं० पुo. प्र. ) होती...| ४. ( स० पु० प्र०) कीलें...। ५. (सं० पु० प्र०) के माने विदारयो...1 ६. (का०) (३०) (प्र०) (सं० ०प्र०) करन्यो...। ७. (कार) (३०)(प्र.) कीन्हों.... '
पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/७२१
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।