पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/७२०

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

काव्य-निर्णय ६८५ अस्य तिलक इहाँ नायिका भंग है, नायक अंगी है, सो नायिका को नायक ते अधिक खेलि सों प्रेम बरनिवौ -- मंगी नायक को भुलाइबौ है, ताते यै रस-दोष है। वि०-"दासजी कृत यह उदाहरण तीसरी अनुशयाना रमण-गता-संकेत स्थान पर किसी कारण-वश न पहुँच सकने वाली 'परकीया' नायिका का वर्णन है। "जमाने में हजारों नाम किसको याद रहते हैं। बनालें आप इक फहरिस्त अरबाबे-मुहब्बत की ॥" अथ प्रकृति-विपरजइ कथन जथा- तीन-भाँति कै प्रकृति है, "दिव्य" "अदिब्य-प्रमान । तीजी' "दिव्यादिब्य" है, जॉनत सुकषि सुजॉन ॥ देव 'दिव्य' करि माँनिऐं, नर अदिब्य' करि लेन । नर-ौतारी देवता, 'दिब्यादिव्य' बिसेख ॥ सोक, हास, रति अदभुतै, लीन 'अदिव्य लोग। 'दिल्यादिव्येन' में सकति, नहीं 'दिव्य' में जोग ।। चारि भौति नायक कहे", सो जु चारि रस.मूल । किऐं और के और में, प्रकृति-विपरजइ तूल ।। 'धीरोदास' सु 'बीर' में, धीरोद्धत 'रिसवंत'। धीरललित 'सिंगार' में', सांत धीर' परसत ॥ सरल पतालै जाइबौ, सिंघ-उलंघुन चाउ। भसम ठानिवौ क्रोष ते, सावों दिन्य-सुभाउ ।। यो बरन पित-माँत को, नहिं सिंगार रस लोग। 'त्यों सुरतादिक' दिव्य में, बरनॅन लगै प्रजोग ।। इहि विधि औरों जाँनिएँ, अनुचित बरनॅन'० चोख । 'प्रकृति-विपरजई' होत है, सो सिगरौ रस-दोष ॥ पा०-१ (रा० पु. नी० सी०) की"। २. (का०) (३०) (प्र०) तीजी..। ३. (का०) (३०) (प्र०) (सं० पु० प्र०) यह...। ४. (का०) (३०) के...। ५. (का०) (३०) (प्र.) (सं० पु० प्र०), कहयो, तिन्हें चारि रस...। ६. (का०) (२०) (प्र०) सों."1७. (२०) "पीर सो संत । क. (का०) (१०) (प्र०) (सं० पु० प्र०) सरग"। ६. (प्र०) सुर- मादिक... .( (20) बरनत.... ११,(का. (20X० म... ।