६८२ काव्य-निर्णय फेरि-फेरि अँगुठा' छुबाबै मिस कॉटन के, फेरि-फेरि भागे-पाँछे भाँवरें' भरति है। हिंदूपति जू सों बच्यो पाइ' निज नाहे बैर". बनिता उछाहै मॉन ब्याह-सौ करति है। अस्य तिलक इहाँ बीररस को बरनन है, सो बैरिन में भयानक में उपमा नौ रूपक में सिंगार-रस को बरनॅन करनों गुँन है। पुनः उदाहरन जथा- भक्ति तिहारी यों बरौ, मो-मॅन में श्री रॉम । बसे कामि-जॅन हियँन ज्यों, परॅम सुंदरी बाँम । अस्य तिलक इहाँ सांत-रस के बरनन में सिंगार-रस को उपमा ते गुन है । पुनः उदाहरन जथा- पीछे, तिरीछे, तकै, उचिकै, न छुड़ाइ सकै अटकी द्रम-सारी। जी में गहै यों लुटेरॅन के ब्रैम, भागती दीन अधीन दुखारी ।। गोरी, क्रसोदरी, भोरी चितै, सँग-ही फिरेंदौरी किरात-कुमारी। हिंदू-नरेस के बैर ते यों, बिचरें बन बैरिन की बर-नारी॥ अस्य तिलक इहाँ सिंगार, करुन भौ भदभुत-रस अपरांग है, बीर-रस अंगी है, ताते गुन-रूप है। वि०-"दासनी कृत यह उदाहरण "समासोक्ति"-अलंकार से विभूषित है । जहाँ प्रस्तुत और अप्रस्तुत दोनों अर्थों का बोध समान विशेषणों-द्वारा होता है, वहाँ समासोक्ति होती है। यहां-पीछे तिरीछे.. इत्यादि ऐसे विशेषण है जिनसे भृगार और करुण दोनों परस्पर विरोधी रसों की अभिव्यक्ति होती है, किंतु यहां दासजी-द्वारा अपने प्राश्रय-दाता हिंदूपति नरेश का प्रताप-उनका बलाधिक्य वर्णन करना अभीष्ट है, अतएव राज-विषक रतिभाव प्रधान होने के कारण श्रृंगार और करुण दोनों रसों का पोषण कर रहा है। अर्थात्, जिन पा०-१. (का०) (३०) (प्र०) (स० पु० प्र०) अँगुठी"। २. (का०) (३०) (प्र०) कटनि। ३. (३०) पाइन जु ना है... ४. (रा० पु० प्र०) पार... । (रा. पु. नी० सी०) R"५.(१० पु० प्र०) कामीजन हिय ज्यों से, परम सु....। ६. (३०)"भरे, बमक, उच"। ७. (का०) (३०) की।
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