काव्य-निर्णय ६८१ सांत-रस के निरवेद स्थायी-भावरूप कहते रस-बिल्छता दोष हूँ इहाँ है । ताते यहाँ यों होंनों चहिऐं-"कोंने मिस वन-जाँड ये, तिय-हिय करति विचारु ॥" अथ अस्य प्रदोषता गुन-लच्छन जथा- बोध' किऐं, उपमाँ दिऐं, लिऐं परायौ' अंग। प्रति लौ रस-भाव है, [न मैं पाइ प्रसंग। अस्य उदाहरन नथा- धैंन संचे, धुन सों सुरत, सरसत सुख जग-माँहि । पै जीबन अति अलप लखि, सज्जन-मँन न पत्याँहि ॥ अस्य यिलक इहाँ सिंगार-रस बाधित करि सांत-रस पोखिबे ते गुन है, दोष नाहीं । पुनः प्रदोषता-गँन को उदाहरन- दृग-नासा न तो तप-जाल-खगी न सुगंध-स नेह के ख्याल-खगी। स ति-जीहा बिरागै न रागै पगो, मति रॉमें-रॅगी नहिँ कॉमें रंगी॥ बपु में व्रत-नेम न पूरन प्रेम, न भूति लगी, न बिभूति जगी। जग-जन्म वृथा तिन को जिन के, गर सेली लगी, न नवेली लगी। अस्य तिलक इहाँ हूँ सिंगार और सांत दोंनों रसँन को बोधक गुंन है। पुनः उदाहरन जथा- पल रोबति, पल हँसति, पल बोलति पलक चुपाति । प्रेम तिहारौ प्रेव ज्यों, वाहि लग्यो दिन-गति ॥ . अस्य तिलक इहाँ हूँ इक भाव के कितनेह भाव बोधक है, ताते गुंन है। अयश एक भाव के बोधक कै-कै एक भाव होत है, ताते गुन है। अथ उपमान ते विरुद्धता जथा- बेनिन बिमल बितान तन रहे जहाँ, दुजैन को सोर कळू कहो ना परति है। ता बॅन वागिॉनि की धूमनि सों नेन, मुकवावलि सबारें' गरें फूलन मरति हैं। ____पा०-१. (स० पु० प्र०) वाप"। २. (का०) (40) (प्र०) पराए । ३. (१०) संग। ४.(३०)(सं० पु० प्र०) सरसन""। ५. (स० पु० प्र०)"को विमल वितांन तान रहे। ६. (का०) (३०) (५०) सुवारे..."
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