६८० काव्य-निर्णय - २. हास्य-विरोधी-भयानक, करुण । . ३. करुण-विरोधी-शृंगार, हास्म । १.रौद्र-विरोधी-गार, हास्य, भयामक । ५. वीर-विरोधी-भयानक, शांत । ६. भयानक-विरोधी-शृंगार, हास्य, वीर, रौद्र, शांत । ७. वीभत्स-विरोधी-शृंगार । ५. शांत-विरोधी-गार, हास्य, वीर, रौद्र, भयानक | १. अद्भुत-विरोधी-रौद्र। -इत्यादि यह परस्पर का रस-विरोध वर्णन-"श्रालंबन-विरोध ( विरोधी रसों का एक ही बालंबन होने के कारण ), श्राश्रय-विरोध ( परस्पर विरोधी रसों का एक ही श्राश्रय होने के कारण ) और नैरंतर-विरोध (दो विरोधी रसों के बीच किसी तीसरे अविरोधी-रस की व्यंजना होने के कारण ) तीन प्रकार का कहा गया है। वीर-रस का श्रृंगार-रस के एक प्रालंबन के साथ विरोध है, क्योंकि जिस प्रालंबन से शृंगार-रस प्रकट होता है, उसी से वीर-रस के उत्पन्न होने से दोनों रसों का श्रास्वादन नहीं हो सकता । रौद्र, वीर, वीभत्स के साथ भी वही बात है, वहां भी संयोग-शृगार के एक श्रालंबन से विरोध है, क्योंकि जिसके साथ प्रेम-व्यापार होता है, उसके प्रति क्रोध घृणा नहीं हो सकता, इस- लिये श्रृंगार-रस का श्रास्वादन भी नहीं होगा। श्रृंगार के द्वितीय-दलरूप विप्रलंभ का भी वीर, करुण, रौद्र और भयानक के साथ एक श्रालंबन से विरोध है । शांत का श्रृंगार और वीभत्स से नैरंतर-विरोध है । ____ रसों का पारस्परिक अविरोध ( मैत्री ) भी दर्शनीय है। शृगार की अद्भुत के साथ, वीर रस की रौद्र और अद्भुत के साथ और भयानक की वीभत्स के साथ मैत्री है-विरोध नहीं है, क्योंकि इनका एक-ही श्रावन, श्राश्रय और और नैरतर विरोध न होरेके कारण आपस में समावेश हो जाता है।" अथ पुनः उदाहरन जथा- बैठी गुर-जैन-धीच सुनि बालँम बंसी चारु । सकल-छादिबन-जाँउ ये-तिय-हिय करति विचार॥ अस्य तिलक इहाँ नायिका में उत्कंठा को बरमन है, पै सब-चाँदि के बन में जाइयो पा०-१. (का०)(ब) (२) कोकि"] , . .
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