काव्य निर्णय ६७७ अस्य तिलक इहाँ नायिका की सुभाब-रसिकता विमचारी भाव में बरनत है 'सोए' कहत सन्न-बाध्यता होति है, फिर सोहचे कों और भाँति सों कहियो भलो नाहीं, क्यों याते के रस और प्रेम की सब्द-वाच्यता है, सो प्रति रसिकता भरु प्रतीति को कारन है, औ अपरांग है के व्यंग में सखी को दोनोंन के प्रति प्रीति थाई भाव है, ताते गुन हैं। अथ अवर रस-दोष बरनन जथा- जहँ बिभाब-अनुभाब की, कष्ट-कल्पनाँ ब्यक्ति । 'रस-दून' ताह कहें, जिन्हें काव्य को सक्ति । वि०-"जहाँ विभाव अनुभावों के व्यक्ति ( जानने ) की कल्पना कष्टकर हो, वहाँ भी एक प्रकार का "रस-दोष" है । दासजी की यह 'रस-दूषण'-परि- भाषा मम्मट ( काव्य-प्रकाश) जन्य है, यथा- ___"कष्ट कल्पनया व्यक्तिरनुभावविभावयोः ॥" ७,१०। अर्थात् जहाँ विभावानुभावों को कष्ट-कल्पना से रस की प्रतीति हो, वहाँ यह दोष होता है।" अथ विभाव को कष्ट-कल्पना को उदाहरन जथा- उठति, गिरति, गिर-गिर छठति, उठि-उठि गिरि-गिरि जाति । कहा कहों' कासों कहों, क्यों जीबै यहि राति ॥ अस्य तिलक इहाँ नायिका की विरह-दसा कहत हैं, सो ब्यापि ते और-हू पै खगति है, ताते कष्ट कल्पना विभाव की है। वि०-"दासजी का यह उदाहरण नायिका की विरह-दशा का वर्णन नायक-प्रति सखी-द्वारा कथन है, उपालंभ है-विरह निवेदन है । अस्तु, विभाव- रूप सखी का कहना और अनुभाव रूप-वेपुथ तथा वैवयं श्रादि शृंगार और करुण-रसों के साथ कष्ट-कल्पना से ही जाने जाते हैं। कुछ ऐसा-ही नायिका की व्याधि का यह वर्णन भी किसी कवि का सुंदर है,-मनोहर है, यथा- "अगर पानेको निवेदेवर मां कोंग, बेन उदोत होत पेदन ए पाती है। पा०-१. (का०) (20) (प्र०)(सं० पु० प्र०) कों...।
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