पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/७११

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६७६ कान्य-निर्णय "कुच-कोरॅम हिय-कोरिके, दुख भरि गई अपार ॥" वि०-"विश्वनाथ चक्रवर्ती ने इसे "स्वशब्द-वाचत्व" दोष कहा है।" अथ विभचारी भावन की सब्द-बाच्यता-जुक्त दोष जथा- ऑनद औ रस-लज्ज' गयंद की खालॅन पै करुनॉन-मिलाई । 'दास' भुजंगँन - त्रास धरें औ गंग - तरंग-धरें-हरखाई ॥ भूति - भर्यो सित अंग स-दीनता, चंद-प्रभा स बितर्क महाई। ब्याह-समें हर-ओर चहें, चर-भाब भई अँखियाँ गिरिजाई॥ अस्य तिलक इहाँ आनंद के संग लज्जादिक विभचारी भावन कों वाच्य में को- व्यंजना में नाहीं, ताते ये दोष है। इन भावन कों बाच्य में व्यंजित करनों 'उत्तम' काव्य है, सोयै छंद या प्रकार होनों चहिऐं - "औनन-सोम पै है के निचोंही, गयंद की खाल पै है जु लसाई । 'दास' भुजंगन -संजुत कंप, सु' गंग-तरंग समेत लखाई ॥ भूति - भर्यो तँन लै मलिनाई, भौ चंद-प्रभा अनिमेख महाई। ब्याह-संमें हर-मोर निहारि कें, नई - नई वीठिन सों गिरिजाई ॥ अथ थाई भाव की सब्द वाच्यता-जुत दोष उदाहरन जथा- अँकनि-कनि रॅन परसपर, पसि - प्रहार मँनकार । महा-महा जोधुन हिऐं, बढ़त 'उछाह' अपार ॥ अस्य तिलक यहाँ "T" सब्द बाध्य में कहिवे ते बीर-रस को स्थाई भाव प्रघट होत है और प्रबर-काव्य होत है, ताते इहाँ "बढ़त उछाह अपार" के स्थान पै- "मंगल बढ़त अपार" ऐसौ होनों हिऐं। अथ सब्द-बाच्यता ते प्रदोष को कथन जथा- जात जगाए हैं न अलि, भागन-आऐं भाँन । रस मीए सोए दोऊ, प्रेम-शैमोए प्रॉन ।। पा०-१. ( का० ) (३०) लज्जा...। २. ( का० ) (प्र०) हर-और... (३०) हरवो रच है...। ३. (३०) नई ...। ४. (सं० ५० प्र०)...सों भय है...। ५. (का०) (३०) (प्र.) भुजंगनि.... ६.(का०) (३०)(प्र.) मौ... ७. (का०) (३०) (प्र०) अगायो न भलि, पागन भायो...1 ६. (का.)140)(प्र.) रस मोयो सोयो बाम समोयो....