पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/७०६

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काव्य-निर्णय ६७१ वि० -"कहीं कथित-पद (दोष) दीपक, लाटानुप्रास, वीप्सा, पुनरुक्तवदा- भास और 'विधि' (अलंकार-सिद्ध वस्तु का पुनः विधान-जिस वस्तु का विधान सिद्ध है, उसका पुनः अर्थातर-गर्मित विधान करना ) के अनुसार कहा गया दोष गुण हो जाता है, जैसा कि दासजी ने अपने 'तिलक' में कहा है कि "तनि सन्द द्वै पोत (बार) आयौ सो वौ गुन रूप है"। अतएव प्रथम तरणि (तरनि) शब्द में द्वितीय तरणि ने-जिस सूर्य के तेज से दर्पण में अग्नि पाई जाती है—"उत्पन्न हो जाती है, उस सूर्य में तेरे तेज का-ही तो प्रताप है, तेरे तेज से-ही तो वह तेजवान् है"- इत्यादि अधिक विशेषता उत्पन्न कर दी, जिससे यह गुण हो गया । अर्थात् तरणि, गुण-प्रकर्षादि के लिये पुनरुक्तवद् कथित पद-वद् है-पिछले वाक्य में विधेय के फिर से कथन के लिये हैं, इसलिये वह गुण ही है।" अथ क्वचित् गरभित-दोष न जथा- लाल-अधर में को सुधा, मधुर कियौ' बिन-पान । कहा अधर में लेत है२, घर में रहत न प्रॉन ॥ अस्य तिलक इहाँ "धर में रहत न प्रॉन' ए बाक्य "बिन-पान के पास होने चहिऐं, पै-दूरान्वय-रूप भाषा-संस्कृत के कबि बनायौ-लिखौ ही करें हैं, ताते ये प्रदोष है। अथ क्वचित प्रसिद्ध-विद्या-विरुद्ध गुन लच्छन जथा- जो प्रसिद्ध कबि-रीति में, सो संतत गुन होइ । लोक-बिरुद्ध-बिलोकि के, दूषन गनें न कोई॥ अस्य उदाहरन महा अँध्यारी रेन में, कीर्ति तिहारी गाइ। अभिसारी पिय पै गई, उजियारी अधिकाइ ॥ अस्य तिलक इहाँ कीरति-गान ते उजियारो हैवी लोक-बिरुद्ध है, पै कवि-रीति में ये गुन है, ताते इहाँ गँन है। पा०-१. (का०) (०) (प्र०) (स) पु०प्र०) किऐ । २. (सं० पु० म.) ही।