पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/७०५

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६७० काव्य-निर्णय वि०-"दासजी ने इस दोहे में दो दोषों "अधिक-पद दोष' और 'कधित- पद दोष' का गुएल-वर्णन 'अपने तिलक (टीका ) द्वारा किया है। प्रथम तों दासजी की यह सरस-सूक्ति काव्य-प्रकाश ( संस्कृत ) की, इस रम्य-रचना की, जैसे- 'यद्वचनाहितमतिबंहु चाटु गर्भ- कायोन्मुखः खलजनः कृतकं ब्रवीति । तसाधवो न न विदंति विदंति किंतु- कत्तु वृथा प्रणयमस्य न पारयति ॥' -७,३१२ यह अल्प-अलंकृत उक्ति है। यहाँ भी दासजी की भांति-"साधु जानते नांहिं" और "सब सँम....." रूप “विदंति" ( जानते हैं ) दो बार पाया है। अस्तु, दासजी और संस्कृत-सूक्ति-जन्य पुनरुक्तवद"-साधु जानते नहिँ' और "सब समझे....' तथा 'विदंति'-श्रादि अधिक पद होने पर भी ये दोनों -दास और संस्कृत-सूक्ति जन्य पद अधिक होते हुए भी वे अन्य पुरुषों से सज्जनों की पृथक्ता बतलाते हैं । अर्थात् , सज्जन खलों की खजपूर्ण सारी बातें जानते हुए भी वे उनके ऊपर कृपा-ही करते रहते हैं- उन्हें खल कहते भी सकु. चाते हैं, क्योंकि हर्ष-भयादि से अभिमुख वक्ता के संबंध में 'अधिक-पद दूषण नहीं माने जाते-"इत्येवमादौ हर्पभयादियुक्त वक्तरि"-इति काव्य-प्रकाशकार वचनात् ।" अथ दीपक-लाटादि पुनरुक्त गँन जथा- दीपक, लाटा, बीप्सा, -पुनरुक्की बद-भास'। विध-भूषन में कथित पद, गुन-करि लेखौ'दास'।। अस्य उदाहरन ज्यों दरपॅन में पाइऐ, तरनि-तेज ते आँच । त्यों पृथवी-पति तेज ते, तरनि-तपत यै साँच ।। अस्य तिलक इहाँ 'तरन सब्द द्वे पोत पायौ है, सो वो इहाँ गुंन रूप है। ... ___पा०-१. (का०) (३०), पुनरुक्ता प्रतिवाः । (प्र०) पुनरुक्तिवदाभास । २. (सं० पु० प्र०) लेख्यो।