पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/७०१

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६६६ काव्य-निर्णय स्थिति में कुत्सित कथन भी काव्य का शोभाकारक हो जाता है, जिस प्रकार माला के मध्य भाग में गुथा हुश्रा नील-पलाश ( काव्यालंकार-१,५४ ), अथवा -उक्त दोषयुक्त सभी विरोध कवि-कौशल से दोषों की जाति से निकल कर गुणों की श्रेणी में परवर्तित हो जाते हैं ( काव्यादर्श-३, १७६) इत्यादि.." दोषोद्धार की प्रथम उदाहरन जथा- हरि-न ति की कुंडल, मुकत-हार हिए को स्वच्छ । अँखियन देख्यौ सो रहयौ, हिय में छाइ प्रतच्छ ।। ___ अस्य तिलक इहाँ स्वच्छ सन्द सुति-कटु है, प्रतच्छ सब्द भाषा-हीन है, मुकट-हार घर- नांतर-गत की और है, ताते बाक्य दोष है। मुकत-हार हिय को अँखियन सों देख्यौ कहिये में अर्थ-दोष-गत 'अपुष्टार्थ' दोष है, “कुडल-हार देख्यौ" इतनों- ही कहें अर्थ को बोध होत है, पै तुक-बस ते व ति-कटु, माण-हीन औ छद-बस ते परनांत-गत पद औ लोकोक्ति-बस ते 'अपुष्टार्थ' भदोष है। कुंडल भी हार कोंन सबन भी हुदै ते भिन्न धरत है। दरस में सबन, चित्र भी सपनों गन्मों जात है। हार जयपि मोतिन ही के कहे जात है, तथापि भाषा कबि हार को साधारन करि लेख्यौ है, मै कवि-रीति-बस है, याते इहाँ दोषन की झलक रहत ह में उदाहरन निरदोष है। पुनः उदाहरन जथा- सिंघ-कटि मेखला' मिथुन-कुच-कुंभ त्यों-हीं, मुख-बास अलि-गुज', भोंहें धनु लीक हैं। वृषमान - कन्या मीन-नेंनी, सुबरन-अंग', नजर-तुला में तोलें। रति हु' रतीक है। नेकौ बिलगात अरि करक-कटाच्छन सों, छै गए गल-ग्रह सु तो लोग सुधरी कहैं। पा०-१.(का०) (३०) (स० पु० प्र०) मेखला स्यो कुभ कुच मिथुन त्यो मुख-बास अलि गुबैं"। २. (प्र०) गुज"। ३. (का०)(वे.) (प्र.) (सं० पु० प्र०) भगी"। ४. (का०) (स० ० प्र०) तोसो." () तासो"५.(का०) (३०) सों" (प्र०) तौ"। ६. (का०) है."(सपु० प्र०) हैं"। ७. (का०)(३०) र जात कर कटाच्छन सो चाहिये गल-ग्रह लोग... (स० पु० प्र०) उर कर कटाच्छन सों, पाहिऐ गलग्रह ते लोग।