काव्य-निर्णय भैया को बुलानौ या कन्हैया को करेंगौ हाल, दधि को पुरैया मैया, पकरि पछारयौ में ॥" -म० मं० (अजान) पृ० ३५ अथवा- "अलि, हों गुजन कों गई, कुंजन-पुंजन आज । फॅट भटेब सत्तर फटे, अंग कटे बिन काज ॥" -२०प्र० (रसलीन) पृ. २६ रसलीन जी ने 'रसप्रबोध' नामक ग्रंथ में 'वर्तमानगुप्ता' के तीन--'वर्तमान- सुरति गोपना,' 'प्रत्यक्ष मान-सुरति गोपना' तथा 'भुवि-भरत-वर्तमान-सुरति- गोपना' विशेष भेद माने हैं।" (२) बोधब्य ब्यंग बिसेस 'दोहा' जथा-- चिंता, जभ, उनीदता, बिहवलता ' अलसाँनि । लह्यौ अभागिन हों अलो, तेंहूँ' गही सुबाँनि ॥ . अस्य तिलक इहाँ नायिका जासों कहति है, ताकी क्रिया (दशा) व्यंजित होति है, ताते ये बिसेख बोधन्य है। (अर्थात् जिससे बात कही जाय उसको अवस्था पर विचार करने से- "बोधव्य की दशा से” व्यंग्य जाना जाय। अतएव यहाँ नायिका की उक्ति सखी-प्रति है, वह ( सखी) नायक को बुलाने के लिये जाकर स्वयं रति कर भाई हैं, जिससे उसके तन-शरीर में चिंता, जभा, उनीदता-इत्यादि रति- अन्य कारण-लक्षण प्रकट हो रहे हैं। उसको सदोषता व्यंग्य है। संस्कृत- रीतिकार इसे 'बोधव्यवैशिष्ठ्य' कहते हैं। वि०-"दासजी का यह दोहा 'अन्य-संभोग-दुःखिता' नायिका का वर्णन है, उसकी अपनी सखो-दासी-प्रति यह उक्ति है। अन्यसंभोग दुःखिता- किसी अन्य स्त्री (सखी या दासी) के शरीर पर अपने प्रिय के संभोग-चिन्हों को देखकर दुखित होनेवाली नायिका को कहते हैं। इसे 'अन्यसुरति दुःखिता' भी कहते हैं, यथा- पा०-१. (प्र.). "जभा, नींद अरु; व्याकुलता "। २. ( का० प्र०), तेहु गही स्वइ बॉन । (३०) (सं० प्र०) तेहूँ गयौ। ( व्यं० म० ) तेहुँ गही सोई बाँन ।
- का० प्र० (भानु) पृ०७६ । व्यं० म० ( लाभ० ) पृ० २० ।